समन्वय छात्र पत्रिका-2011 पृ-25
एक दृश्य ऐसा भी
-कस्तूरिका दाश
मैंने देखा एक बच्चा पक्षी अपनी माँ के पास मंडरा रहा था, कुछ क्षण के लिए फड़फड़ाया, फिर उसने उड़ने की कोशिश की, पर वह गिर गया। माँ पक्षी अपने बच्चे को गिरते देख रही थी। शायद वह कुछ सोच रही होगी ? कुछ महसूस कर रही होगी ? पर मुझे पक्षियों की भाषा समझ में नहीं आती। परन्तु जहाँ तक मेरा अन्दाजा है, वह उस समय वैसे ही खाद्य संग्रह में लगी हुई थी। लेकिन बच्चा पक्षी गिरता-पड़ता अपने प्रयास में निरन्तर लगा रहा, कुछ समय बाद वह अपने छोटे-छोटे पंखो से थोड़ा-थोड़ा उड़ने लगा, कुछ दूर उड़ता फिर गिर पड़ता...। अंत में ऐसा समय भी दूर नहीं रहा, जब वह (बच्चा पक्षी) उड़ने लगा, असीम गगन में, असीम सपनों को बुनकर। फिर मेरी नजर उस पक्षी के ऊपर पड़ी जिसका एक पंख नहीं था। परन्तु वह भी उड़ने कि कोशिश कर रहा था, उसके पास और भी अनेक पक्षी थे, पर उनमें से मैंने किसी एक को ऐसा नहीं देखा, जो उसे उड़ने में मदद कर रहा था। धीरे-धीरे चीं-चीं करता वह पक्षी भी थोड़ा-थोड़ा उड़ने लगा। इस दृश्य को देखने के बाद मेरे मन में अनेक प्रश्न उठने लगे। वह प्रश्न साधारण होते हुए भी साधारण नहीं थे। वे कुछ इस प्रकार के थे कि एक छोटा-सा पक्षी, जो बच्चा है, मासूम है, संवेगहीन है असीम गगन में कैसे उड़ने लगा ? जिसका एक पंख कटा हुआ है, वह भी थोड़ा-थोड़ा उड़ने लगा ? सबसे हैरानी की बात वह थी, जब मैंने देखा कि वे (बच्चा पक्षी और एक पंख कटे वाला पक्षी) बिना किसी सहारे के उड़ने लगे, यह सब कैसे हुआ ? इसके पीछे क्या कारण है ? मैं बहुत देर तक सोचती रही। लाख कोशिश के बाद भी मुझे अपने मन में उठ रहे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले। परन्तु उससे मुझे एक सीख जरूर मिली कि अगर लक्ष्य आकाश की तरह ऊँचा हो तो फल भी वैसा ही होगा। जो मेरे जैसों के मन में अनेक प्रश्नों को खड़ा कर दे। आशय यह है कि अगर लक्ष्य उस बच्चा पक्षी जैसा ऊँचा और निश्चित हो, तो लगन भी वैसी ही होनी चाहिए। और दूसरी सीख यह मिली कि जिस तरह किसी दूसरों के पंखों से उड़ा नहीं जा सकता, उसी तरह किसी दूसरों के सहारे जीवन जिया नहीं जा सकता। पारंगत
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