समन्वय छात्र पत्रिका-2011 पृ-34
(संस्मरण)
बदलते परिवेश...-विजय बालू सरडे
मैं, आज अपने आपको देखता हूँ तो इन बातों को महसूस करके लगता है कि आज जो भी मेरी रूचि, आदतें, धारणाएँ एवं मान्यताएँ हैं, उन पर मेरे बचपन का असर ही अत्यधिक है। मेरे दृष्टिकोण एवं जीवन जीने के तरीके की बुनियाद मुझे अपने बचपन के दिनों में दिखाई देती है। मुझे याद है, बचपन में किस प्रकार से मैं अपने मोहल्ले के दोस्तों के साथ घुल-मिल गया था। वह लुका-छिपी का खेल तथा चोर-पुलिस के खेल में गाँव की तमाम गलियों को रौंदते हुए अपने आप को बचाना या फिर पुलिस बनकर अपने चोर बने साथी की तलाश में उसे ढूँढने दूर-दूर तक जाना, शायद इसी प्रकार के खेलों से निरीक्षण एवं सूक्ष्म जाँच की दृष्टि आई होगी, जो आज समाज में चौकन्ना रहने पर मजबूर कर रही है। कुछ दोस्तों के साथ नदियों, पहाड़ों, खेत-खलिहानों तथा खुले विस्तीर्ण मैदानों में घूमना आज पर्यावरण के प्रति विशेष दृष्टिकोण बनाने में सहायता दे रहा है। प्रकृति के प्रति प्रेम एवं रूचि अपने आप बढ़ चुकी है। गाँव के चारों ओर फेली पहाडि़यों के उस पार की दुनिया को झाँककर देखने की इच्छा इतनी तीव्रतम होती थी, जिससे नये प्रदेशों को जानने के कुतूहल का विकास होता गया। शायद भूगोल के प्रति रूचि इसी से बढ़ी। आज भौगोलिक विविधता को जानकर विभिन्न प्रदेशों की भिन्नता को मेरा मन स्वीकार पाता है। बचपन में अपने घर-आँगन से मेरा मन जैसे-जैसे बढ़ता गया, वैसे-वैसे बड़ी लगने वाली दुनिया छोटी-से छोटी होती गई। कितना अद्भुद है यह परिवर्तन। मामा के गाँव में, नानी का आँचल थामे उसकी गोद में बैठना हो या नाना के सरौते से फूटी हुई सुपारी के टुकड़े की लालसा मन में उत्पन्न होना हो और उनका वह प्यार तथा अपनापन, आज उनके प्रति एवं उनके जैसे अन्य बड़ों के प्रति श्रद्धा को बढ़ाए हुए है। आज भी याद है, खेतों की मेंड़ों पर बनी पगडंडियों से अकेले डरते-डरते, मवेशियों को खेतों में चराते नाना को ढूंढने तक का वह सफर छोटी-सी उम्र में वह गन्नों के खेतों की आड़ बड़ी डरावनी लगती थी... फिर उसके बाद तुअर की खेती की घनी आबादी में गुम हुई पगडंडी से गुजरना मुश्किल बन जाता था, सोचता हूँ आज इन्हीं घटनाओं ने प्राकृतिक सुषमा को समझने में मेरी कितनी मदद की है। पहाड़ी फलों को तोड़ने के लिए हम बच्चे मैदानों एवं घनी झाड़ियों को रौंदते हुए निकल पड़ते थे। इसी बीच रास्ते में दिखाई देने वाले विभिन्न कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों का साथ आज जीवन की आस बन बैठा है। इन सबके प्रति सद्भावना का प्रतीक बन चुका है। गाँव की वह चहल-पहल वाली शाम तथा गोधूली, दिन भर परिश्रम करने के बाद खेतों से लौटते हुए किसान-मजदूर, जिनके हाथों में दिखाई देते खेत-खलिहानों से प्राप्त मोरों के पंख या किसान के बेटे के हाथों में खरगोश के किसी बच्चे को देखते हुए मेरा उनके घरों तक जा पहुँचना या खेतों से वापस अपने घर की ओर लौटते अपने परिजनों की राह एकटक होकर देखना, ये सब कुछ-न-कुछ सिखाने वाला ही तो था। वह नन्हा-सा मन न जाने क्या-क्या सीख रहा था। उसे पता नहीं, पर कहीं असर जरूर हो रहा था।
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