हे ! सृष्टि रचयिता
कहाँ है तेरा ठाँव ? कहाँ तेरा बसेरा?
बोल ! कैसे बनाया यह अद्भुत नजारा?
नयनरम्यता वसुंधरा की यह,
चारों और मदहोश कर देती वातावरण सारा
हे ! सृष्टि रचयिता
हवा में भरा सुरूर यह कैसा ?
पानी पर लहराता संगीत हो जैसा
तड़प रहा हूँ मैं पाने का तेरी सुन्दरता
बता ! क्या है पता ? जो तू नहीं बताता
तेरी विशालता समक्ष मैं हूँ एक छोटा-सा पत्ता
ऐसे अनेक पत्तों का तू ही तो है रचियता
हे परमपिता ! कहाँ है तेरा ठाँव.....
कैसे ढूँढूँ तुझको बोल,
ये सारे राज दे तू खोल
इन हवाओं में, इन फिजाओं में,
यह इन बादलों की धुँध में या, फिर
उस पहाड़ी के आगे, बीच-बीच में,
खिलती धूप में, या हवा की रूबाइयों में,
तेरा मात्र एहसास कराती यह सुन्दरता
मैं दौड़ता तुझे पाने, पर तू है पर निकालता
इन पहाड़ों, हवाओं, वादियों-झरनों में बोल कहाँ है तू रहता
है सृष्टि रचियता, कहाँ है.....
हे प्रभु ! मत बता पता, पर यह जरूर बता,
जीवन को जीना है कैसे ? जैसा तू है समझता
वैसा ही मैं रहूँ, वैसा ही मैं करूँ,
तुझ तक पाने का रास्ता तू बता
मैं भी तेरी तरह ही रहना चाहता हूँ,
इस संसार में बनकर सुन्दरता
हे सृष्टि रचयिता ! कहाँ है तेरा ठाँव
कहाँ हे तेरा बसेरा ?