समन्वय छात्र पत्रिका-2012 पृ-22
कब मैं पराई हो गई?एस. तुलसी
झूलना, खेलना, हँसना, रूठना, खिलखिलाना, कहानी सुनना और सुनाना यही सब तो जानती थी, किंतु अब एक नई चीज भी मुझसे जुड़ने लगी थी, जो सर्वथा मेरे लिए अपरिचित एवं अनोखा था। पापा ने कहा- कल हमारी गुड़िया स्कूल जायेगी। सुनकर मैं बहुत भयभीत हुई, घबराई थी किंतु उसी क्षण मेरे पूछने से पहले ही दीदी ने समझाया कि बिटिया रानी! स्कूल में भी तुझे यही सब करना होगा, बस अंतर केवल इतना ही है कि वहाँ तुझे हम नहीं मिलेंगे, बल्कि तुम्हारे हम उम्र के साथी ही तुम्हारे साथ होंगे। माँ ने भी ऐसा समझाया कि 'लाली! केवल पांच घंटे की तो बात है, फिर वापस आ जायेगी', फिर क्या था? उसी दिन से घर के सारे सदस्य मुझे स्कूल भेजने की तैयारी में जुट गए। पापा रोज मुझे बाजार की गलियों में ले जाते और वहाँ तरह-तरह के स्कूल बैग दिखाते और कहते, 'बेटा! देख यह सबसे अच्छा है। इसे जब तू स्कूल लेकर जायेगी, तो बड़ी प्यारी लगेगी। बिल्कुल टी.वी. पर उस अंजलि की भांति, उन की इस बात पर गुल्लू काका भी हाँ में हाँ मिलाकर मुझे पहना कर उसे दिखाते। इस प्रकार सारी जरूरत की चीजें मेरे लिए एकत्रित की गईं, किंतु मेरे मन में एक अज्ञात भय की भावना व्याप्त थी। माँ, पापा और दादी के लाख समझाने के बावजूद मैं डरी और घबराई हुई थी। दरअसल बात यह थी कि जब भी मुझ पर कोई विपत्ति पड़ती, मैं माँ के पास दौड़ी चली जाती, यदि माँ रूठ जाए तो तुरंत दादी मेरा पक्ष लेने लगती थीं और पापा तो कहना ही क्या, वो तो सदैव आतुर रहते थे। मेरी हर एक जिद को पूरा करने के लिए किंतु इन सबके होने के बावजूद मेरा एक भयानक शत्रु था, हाँ-हाँ शत्रु ही कहूँगी। वह था मेरे ताऊ का बेटा आशीष। मेरी हर वस्तु पर उसकी सदैव नजर गढ़ी रहती थी। उसके कारण जब यह चर्चा घर में चली कि मुझे स्कूल भेजा जायेगा एक क्षण के लिए तो मैं यह सोचकर बड़ी खुश हुई कि कुछ घंटे तो इससे पिंड छूटेगा। किंतु अगले ही क्षण एक खौफ भी मन में समा जाता है कि घर में तो यह है ही, जिससे मैं किसी न किसी भांति दादी के सहारे निपट लेती हूँ, किंतु वहाँ इसके जैसे और दो-तीन लड़के या लड़कियाँ हुईं तो फिर मेरा क्या होगा....? और फिर वहाँ न तो माँ होगी और न दादी और न पापा। उसने मेरे सारे खिलौने ले लिये तब...? मैं इसी उधेड़बुन में थी, देर तक सो नहीं पाई। कभी पापा से तो कभी अम्मा से इसका जिक्र करती और वे कुछ न कुछ कर मुझे फुसलाने की लुभावनी कोशिश करने लगते। बड़े ही सवेरे अम्मा ने मुझे जगाया। अच्छी तरह से मुझे याद है वह दिन और क्यों न याद हो? मेरे रोने के बावजूद मुझे स्कूल जाने के लिए तैयार किया गया। उस दिन तो ऐसा जान पड़ा, जैसे सब के सब मेरे दुश्मन बन गये हैं। केवल दादी ही तो कह रही थी कि 'क्यों बेचारी को तंग करते हो, अभी तो बहुत छोटी है। रहने दो, अभी बहुत समय है। जब थोड़ी बड़ी हो जायेगी, तब स्कूल जायेगी। किन्तु पापा में मुझे टॉफी का लालच देकर तथा अम्मा ने नई ड्रेस और नई-नई कापियाँ एवं स्कूल बैग का प्रलोभन देकर मुझे स्कूल के लिए तैयार किया। कितनी शंकाएँ? कितने सारे प्रश्न? एक अज्ञात, अनजानी सी चिंता मन में भर कर मैं पहुँची अपने स्कूल में, जिसे छोड़ते समय उससे कई गुना अधिक दु:ख हुआ है। पापा केवल स्कूल के गेट तक ही मुझे लेकर जा पाए थे। हमारे स्कूल के चपरासी, जिसे हम रामू काका कहकर बुलाते थे, उसने मेरा हाथ पकड़ा और पापा से बैग लेकर मुझे जबरदस्ती कक्षा में ले गया। मन में अपार वेदना और दु:ख होने के बावजूद अपने शर्मीले स्वभाव के कारण मैं खुल कर अन्य बच्चों की भांति रो नहीं पाई। केवल आँखें नम किए हुए अपने दु:ख का इजहार तो किया। दूर से पापा ने इशारा करते हुए बताया कि छुट्टी में वे आकर ले जायेंगे। घबराने की कोई बात नहीं है। हाँ, एक नई चीज भी देखने को मिली और वह है उनकी आँखों का भी नम हो जाना। आश्चर्य हुआ, पर तुरंत ही मैं संभल गई और कक्षा में प्रवेश किया। वहाँ का दृश्य देखकर मन प्रफुल्लित हो उठा। कितने सारे खिलौने? बच्चे और फिर मैडम के मुधरता से भरे वचन- 'Good morning ! Children', उनके उस स्वर में मुझे माँ की ममता भरे स्वर का आभास हुआ, फिर धीरे-धीरे छुट्टी से पहले सबसे मित्रता हो गई और एहसास हुआ एक खूबसूरत अत्यन्त प्यारी दुनिया का। फिर क्या था रोज बड़े चाव से माँ के जगाते ही मैं सहर्ष जग जाती और कक्षा में सबसे पहले पहुँचकर मैडम के चहेते विद्यार्थियों की श्रेणी में आ गई। कहानी सुनते-सुनाते ना जाने कब मैं इस बीच उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच गई जहाँ पर अपनी बेटी को देख माता-पिता का दिल उसे किसी और को सौंपने को आतुर हो उठता है। हुआ यूँ कि फिर पापा ने ठीक उसी भांति ही घर में प्रवेश करते हुए दादी से कहा- 'अम्मा! बस कुछ ही दिनों की बात है। अब हमारी गुड़िया दुल्हन बनेगी। समझो रिश्ता पक्का। पुन: मैं उसी भांति घबराई, भयभीत हुई और हाँ यह नया एहसास हुआ लाज का। मारे लाज के मैं गड़ सी गई। किससे पूछूँ? कैसे पूछूँ? कैसे इस बात को किसी के सामने रखूँ? समझ नहीं आता था। गर्मी के दिन थे, दादी आंगन में बैठ बरबस मुझे देख रही थी और मनोभावों को ताड़कर मुझे समझाने लगीं। कि देख गरिमा, अब तो तू बड़ी हो गई है, दूसरे घर जा रही है, संभलकर रहियो। अपने घर की लाज रखियो। बेटा, घबराने की कोई बात नहीं। हम सब तो यहाँ हैं ही, रोज तुझसे फोन पर बात कर लिया करेंगे। दादी कि इस बात से मुझे एहसास हुआ कि ये जो मेरा ससुराल जाना है, मेरे स्कूल जाने से बिल्कुल अलग है। दोनों की तो कोई तुलना ही नहीं। क्षण-क्षण केवल एक ही विचार मन को अशांत करता रहा कि यह सब मेरे अपने यहाँ छूट जाएँगे। यह कमरा, इसकी हर वस्तु, जिसे मैं बचपन से ही बड़े प्यार से संजो कर रखी थी, सभी यहीं रह जाएँगी। कभी अपने तकिये को, कभी कमरे को फर्श को, तो कभी दीवारों, किताबों एवं हर एक उस चीज को मैं बड़े गौर से देख रही थी, जिस पर अब तक केवल और केवल मेरा ही अधिकार था। इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में सोने का प्रयास कर ही थी कि अचानक मेरा ध्यान सामने ड्रेसिंग टेबल के दर्पण पर गया, जिसमें मेरे पीछे की दीवार पर टंगी तस्वीर का प्रतिबिम्ब झलक रहा था। आह! कितनी मनमोहक छवि है राधा-कृष्ण की। यमुना के किनारे कृष्ण गोद में राधा घड़े पर हाथ रखकर लेटी हुई हैं एवं श्रीकृष्ण बेसुध हो मुरली बजा रहे हैं। यह चित्र बरबस मेरे मन को अपनी ओर खीच रहा था, बाल्यकाल से इस चित्र की कला एवं शिल्प से मुझे विशेष प्रेम था, किंतु आज एक नई बात उभर कर आई। मन उस प्रणय की मधुर बेला को पाने के लिए छटपटाने लगा। फिर क्या? नित्यप्रति अब मेरा यही कार्यक्रम बन गया। पलंग पर लेटी-लेटी दर्पण से उस चित्र को देखती और मन ही मन प्रफुल्लित हो उठती। कभी तो मैं राधा के स्थान पर स्वयं की कल्पना करती, पुन: यह विचार मन में आता कि क्या यह अजनबी युवक, जिसे पापा ने मेरे लिए चुना है, मुझे कृष्ण जैसा प्यार दे पायेगा? क्या हमारी जोड़ी भी इस युगल जोड़ी की भांति आदर्श बन पायेगी...? इस विचार के आते ही मन में एक मीठी सी गुदगुदी तो होने ही लगती, साथ ही एक अज्ञात आशंका भी मन को घेर लेती थी। आखिर वह दिन आ ही गया, जब मुझे छोड़ने के लिए मेरे पापा केवल मेरे घर के द्वार तक ही मेरा हाथ पकड़े, मुझे बाहों में भर कर साथ ही साथ आँखों में आँसू भरकर कहा, 'बेटा! यही तो रीति है दुनिया की, आखिर बेटी परायी ही होती है, अपने नये घर में जाकर अपने इस बूढ़े बाप को भूल न जाना...? यह बात मुझे तीर की तरह चुभी। एक क्षण के लिए मन चीत्कार कर उठा- 'इतने निष्ठुर कब से हो गए हैं पापा? कैसे अपने कलेजे के टुकड़े को अपने से अलग एक पल में ही एक अनजान व्यक्ति के हाथों सौंप दिया। दूसरी ओर आँचल से आँखों को पोंछती हुई अपने मनोभावों को शांत करने में असफल प्रयास लिये हुए माँ बड़ी ही स्नेहासिक्त नजरों से देख रही थीं, किंतु मौन थीं। जिस दिन से पापा ने मेरी शादी तय की, उसी दिन से माँ और मेरे बीच एक दूरी सी आ गई। मुझे तो मेरी लाज ने उनसे खुल कर बातें करने से रोका था, तो उन को मेरे प्रति ममता एवं मोह ने। उस दिन के पश्चात जब भी वे मुझे देखतीं, बातें करतीं, तो वह पहले जैसा स्वाभाविकपन उनमें नहीं था। सदैव आँखें नम रहतीं और आवाज गदगद। विदा करते वक्त उनके मुख से केवल ये ही शब्द निकले, 'बिटिया यह घर तेरा है, जब कभी हमारी याद आए, चले जाना। माँ तुम्हारी राह देखती रहेगी।' आह! कितना मधुर, कितना स्नेहासिक्त वाक्य है यह, जो आज भी कानों में अमृत का संचार करता है। आज मैं सोचती हूँ क्या यही है एक लड़की का जीवन? एक क्षण में अपनों से परायी हो जाती है। पारंगत
|