स.पू.अंक-13,अक्टू-दिस-2011,पृ-60
मैं नि:सहाय होकर टाइगर की ओर देखने लगी। मुझे देखकर वह थोड़ा शांत हो गया। मैंने उसका सर सहला दिया। उसने जैसे मेरे मन का भाव पढ़ लिया। उसने अपना सर मेरे पैरों से सटा दिया और उसने जैसे मुझे सहानुभूति दिखाना चाहा। संर्पक सूत्र- मौलिकगुरु दक्षिणा
लखनउ विश्वविद्यालय के पीछे गोमती तट पर दीपा, प्रकाश की गोद में सिर रख कर लेटी हुई थी। उसकी आंखो में अनगिनत सपने समाये हुए थे और चेहरे पर असीम शांति छायी हुई थी। प्रकाश के सानिध्य में उसे सुख के साथ–साथ सुरक्षा की अनुभूति भी होती थी। अचानक आये तेज हवा के झोंकों ने दीपा की लटों को बिखेर दिया। उसका पूरा चेहरा बालों से यूँ ढँक गया, जैसे बदली से चांद। प्रकाश ने हाथ बढ़ा कर उसकी बिखरी हुइ लटों को सवाँरा फिर उसके चेहरे को दोनों हाथों के बीच लेता हुआ बोला, "दीप, हम लोग कब तक यूँ छिप–छिप कर मिलते रहेगें। आखिर तुम कब इस प्रकाश के आँगन में प्रकाश बिखरने के लिए राजी होंगी।" दीपा अपनी आंखे प्रकाश के चेहरे पर टिकाते हुए मुस्करायी, "प्रकाश तो दीप का अंतिम लक्ष्य होता है। प्रकाश के बिना उसका अस्तित्व अर्थहीन है लेकिन ..." "लेकिन क्या ?" प्रकाश अधीर हो उठा। "तुम तो जानते हो, जो रिसर्च मैं कर रही हूँ, वह कितना महत्वपूर्ण है। थीसिस पूरी करने के लिए मेरे पास 24 घंटों का समय भी कम पड़ रहा है। ऐसे में अगर मैं शादी कर लेती हूँ तो अपने दायित्वों को पूरा नहीं कर पाऊँगी" दीपा ने अपनी तर्जनी प्रकाश के होठों पर टिकाते हुए कहा। "हमारे घर में इतने नौकर हैं कि तुम्हें कोई काम करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। तुम आराम से अपनी थीसिस पूरी करना", प्रकाश ने समझाने की कोशिश की। दीपा खिलखिलाते हुए उठ बैठी और कपड़ों में लगी रेत को झाड़ते हुए बोली, "जानती हूँ बुद्धुराजा, लेकिन तुम भी ये जान लो कि मैं जो भी काम करती हूँ, पूर्णता के साथ करती हूँ। जब तक थीसिस लिख रही हूँ, सिर्फ थीसिस लिखूँगी। जब प्यार करूँगी तो सिर्फ प्यार करूँगी। उस समय मैं किसी नौकर को न तो तुम्हारे पास चाय की प्याली लेकर भटकने दूँगी और न ही किसी को तुम्हारे कपड़े छूने दूँगी। सिर्फ मैं और तुम। हमारे बीच तीसरा कोई नहीं आने पायेगा। इसलिए फिलहाल थोड़ा-सा इन्तजार और करो। मेरी थीसिस बस पूरी होने ही वाली है। उसके बाद हम अपने–अपने घर वालों को अपने प्यार के बारे में बता देंगे।" |
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