'वसुधैव कुटुम्बकम'
'संस्थान परिवार' से तात्पर्य है- केंद्रीय हिंदी संस्थान में कार्यरत और अध्ययनरत सभी सदस्य। संस्थान परिवार के चिंतन में वसुधैव कुटुम्बकम की भावना भरपूर है। इस भावना के जनक थे, डॉ. व्रजेश्वर वर्मा। संस्थान परिवार को सृजित करने में उनका अद्वितीय योगदान रहा है। वे संस्थान परिवार के सच्चे और उदार मुखिया थे। संस्थान परिवार के किसी भी सदस्य पर जब कोई विपत्ति आती, तब सांत्वना देने के लिए वे स्वयं पैदल उस पीडि़त सदस्य के घर पहुँच जाते थे। प्रत्येक अध्यापक और कर्मचारी के सुख-दुख का ध्यान रखते थे। संध्या काल में छात्रावासों में जाकर प्रशिक्षणार्थियों से मिलते थे और उनकी समस्याओं का समाधान भी करते थे। यही कारण है कि संस्थान परिवार के हर सदस्य में वसुधैव कुटुम्बकम की भावना पल्लवित होने लगी और धीरे-धीरे मजबूत वृक्ष के रूप में विकसित होने लगी। देश-विदेश से आने वाले प्रशिक्षणार्थियों के संगम ने भी संस्थान परिवार को उदार, समन्वयवादी, सहिष्णु, हमदर्द और बहुज्ञ बनाया है। यह परिवार इतना अटूट है कि सन 1965 से आज तक अविरल बिना किसी मदभेद के सक्रिय है और संस्थान के विकास में योगदान दे रहा है। संस्थान परिवार के हर सदस्य में कुछ विशिष्ट विशेषताएँ हैं, जो अन्यत्र परिलक्षित नहीं होतीं। संस्थान के निदेशक, अधिकारीगण स्वयं अपने कर्तव्यों को निष्ठा और ईमानदारी से पूरा करते हैं और उदारता एवं बिना किसी योगदान से पालन भी करवाते हैं। कर्मचारी गण अपना-अपना कार्य समय बद्ध सीमा में निष्ठा से करते हैं। वे नि:स्वार्थ और बिना किसी भेदभाव से कार्य करते हैं। संस्थान का लेखा विभाग इसका ज्वलंत उदाहरण है। जबकि सरकारी तंत्र के लेखा विभागों की कार्यप्रणाली और व्यवहार में अक्सर प्रश्न चिन्ह लगते हैं। कर्मचारियों द्वारा विशाल ग्रंथालय में भी शोध कार्य करने के लिए पूरी सुविधा उपलब्ध करायी जाती है। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों का व्यवहार और कार्यशैली प्रशंसनीय है। वे संस्थान की हर एक विकासात्मक गतिविधियों में सहयोग देने के लिए तत्पर रहते हैं। वे पद के अनुसार अपने वरिष्ठों का सम्मान करना जानते हैं। प्रशिक्षणार्थियों के साथ वे घुल-मिलकर उनके हमदर्द बन जाते हैं। वे लोग आज्ञा और अवज्ञा का परिणाम भी अच्छी तरह जानते हैं। संस्थान परिवार के अध्यापकगण की विशेष पहचान है, जो अन्यत्र परिलक्षित नहीं होती। ये लोग अपने विषय के तो विशेषज्ञ होते ही हैं, साथ ही ये बहुत सहिष्णु भी होते हैं। यह बहुज्ञता और सहिष्णुता उन्हें देश-विदेश के विद्यार्थियों और दूर-दराज के इलाकों की यात्राओं से प्राप्त होती हैं। पूर्वोत्तर भारत की नागा, मिजो, खासी, गारो, बोड़ो, मिश्मी और दक्षिण भारत की तमिल, कन्नड़ और मलयालम भाषाओं की संरचनाओं का अर्थ व देश-विदेश की प्रकृति का उन्हें ज्ञान होता है। वे विभिन्न संस्कृतियों से रू-ब-रू होते रहते हैं। कई अध्यापक हिंदी शिक्षण के लिए विदेशों में भी जाते रहे हैं और किताबें भी लिखी हैं। अत: संस्थान परिवार के अध्यापकगण ज्ञान, कर्तव्यनिष्ठा, चरित्र और व्यवहार में अन्य संस्थाओं के अध्यापकों से विशिष्ट हैं। ये अध्यापक संस्थान के शैक्षिक और प्रशासनिक कार्यों में सहयोग देकर संस्थान परिवार को सरसता प्रदान करते हैं। उनमें संस्थान को और अधिक विकसित करने की अद्वितीय क्षमता और लालसा है। आज केंद्रीय हिंदी संस्थान अपनी कार्य प्रणाली के कारण देश-विदेश में प्रकाश स्तंभ के रूप में चमक रहा है। इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है। | ||||||||||||
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