अब तुम्हारे हवाले
यह किसी क्षेत्र, राज्य अथवा देश की धरोहर नहीं है। आज यह विश्व के लिए हिंदी का गवाक्ष बन गया है। विश्व हिंदी की चेतना और संकल्प इसी कैम्पस में अंकुराया है। मोटूरि जी, ब्रजेश्वर जी, राजगोपालन जी, सुरेश कुमार जी से लेकर विजय कुमार, भरत जी तक लंबी सूची है जुड़े लोगों की। कुछ ही नाम लिए हैं, स्मृति-विभोर होकर बहुत कुछ भूल रहा हूँ। दरअसल मेरी हिंदी की लगभग सारी पढ़ाई अनौपचारिक हुई। हिंदी का 'मुहावरा' तो बार-बार के सत्रों में संस्थान से ही सीखा। वही बाद में अनुवाद के समय बहुत काम आया। लगता है, उस कार्य से संतुष्ट होकर संस्थान ने बहुत बड़ा पुरस्कार भी दिया। पर, मुझे इतना भान हो गया कि मेरे अनुवाद कार्य पर इससे भारत में हिंदी भाषा की सर्वोच्च संस्था से स्वीकृति की मुहर लग चुकी है। संशय, दुविधा, संकोच के सारे बादल छँट गए। तब से आज तक मैंने मुड़कर नहीं देखा। अनुवाद चल ही रहा है। शुरू-शुरू में जब आया था तो बड़ा संकट था। भवन किराये का, भोजन बाहर होटल में, लाइब्रेरी व्यवस्थित नहीं। बस एक ही आश्वासन था, सब ठीक हो जायेगा। परंतु मेरे सत्र तो ग्रीष्मावकाश में होते। मई में आगरे की गर्मी ओड़िशा वाला कितना सहे? यह बात 1971-1972 की रही है। डाइरेक्टर के कमरे में पहुँच कर रो पड़ा। उन्होंने कहा- अरे, भई क्या हुआ? सर, मुझे रिलीव कर दें। मैं गर्मी सह न पाऊँगा। वे सहानुभूति की हँसी में ठहाका लगा बैठे। अरे! भई अध्यापक, हिंदी के अध्यापक, बहुत सहना होगा। खैर अब ज्यादा नही, चार दिन मेरे कहने पर रुको। बारिश हो जायेगी। मैं आज्ञाधीन था। सूने आकाश के नीचे छत पर सो गया। तारों का चलना देखता रहा। तीन रातें बीतीं। कोई परिवर्तन नहीं मौसम में। चौथी रात मन में थी, आज भर देखना है, कल तो रिलीव कर ही देंगे। पंरतु मध्य रात्रि! आँख हल्के से झपकी ही थी कि मोटी-मोटी बूँदें टपकने लगीं। उठ कर नीचे कमरे में आये। एकदम मौसम बदल गया। मेरा प्रशिक्षण (गहन पाठ्यक्रम) निर्विघ्न पूरा हुआ। यह जड़ संस्थान नहीं है, हिंदी का दिल है, स्पन्दनशील है, गतिशील है। इसे साहित्य सृजन पीठ न मानें। परंतु भाषा को दिशा देने के लिए कई बार समस्याएँ आयी हैं। उनका समाधान केंद्रीय हिंदी संस्थान में मिला है। | ||||||||||||
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