ऋण समिति का गठन
संस्थान की पत्रिका 'गवेषणा' में छपे मेरे लेख में डॉ. धीरेंद्र वर्मा के एक कथन की आलोचना को तत्कालीन निदेशक के एक चाटुकार ने जब दिखाया तो निदेशक ने पत्रिका-सम्पादक डॉ. अय्यंगार को बुलाकर पूछा कि डॉ. शर्मा का यह लेख 'गवेषणा' में कैसे छप गया? निश्छल, परमहंस स्वभाव से धनी डॉ. अय्यंगार ने वह फाइल लाकर निदेशक को दिखा दी, जिसमें निदेशक की स्वीकृति के हस्ताक्षर थे, फिर भी निदेशक ने डॉ. साहब से व्यंग में कह ही दिया कि लगता है शर्मा ने तुम्हें चाय पिला दी होगी। जब ये सब बातें मुझे पता लगीं तो मैंने अपने मित्र डॉ. मो. मा. चौहान से कहा कि मैं ऐसे संस्थान में नहीं रहना चाहता, जहाँ का निदेशक चाटुकारों से घिरा रहता हो। डॉ. चौहान ने मुझे समझाया कि 'नहीं, तुम्हें ऐसे चाटुकारों और ऐसे वातावरण से जूझने के लिए यहाँ रुकना ही होगा। संस्थान में मुझे समय-समय पर जो भी कार्य दिये गए, मैंने उन्हें पूर्ण निष्ठा, तल्लीनता तथा अपनी क्षमता से पूरा किया। इस घटना के बाद कई महीने बाद तक मेरा और निदेशक का आमना-सामना ही नहीं हुआ। एक दिन किसी कार्यक्रम में मैं कमरे की सबसे पीछे की सीट पर बैठा था। ऊँचे मंच पर बैठे निदेशक महोदय ने अवश्य देख लिया होगा, किंतु कक्ष से बाहर निकलते समय उन्होंने स्वयं ही मुझसे कहा- अरे शर्मा, तुम कहाँ बैठे थे? मैंने भी उत्तर दिया- सर, पीछे की सीट पर ही तो था। 'अच्छा' कहकर वे चले गए और मेरे लिए एक मौन संदेश छोड़ गए- अधिकारी के साथ अनबन रखना या बोलचाल बंद रखना, एक अच्छे अध्यापक के लिए उचित नहीं है। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा ने द्वितीय भाषा-शिक्षण में उन्नयन के लिए प्रति वर्ष कई सेमीनार आयोजित किए। लोगों को कुछ नया लिखने के लिए प्रेरित किया। उनका सबसे बड़ा योगदान वर्तमान भवन की नींव के पत्थर के रूप में याद किया जाता रहेगा। एक दिन उन्होंने मुझे और डॉ. चौहान को अपने कक्ष में बुलाकर कहा- "हमारे चतुर्थ और तृतीय श्रेणी के ज्यादातर कर्मचारी ऋण से ग्रस्त रहने के कारण पूरे मनोयोग और क्षमता से ड्रयूटी पूरी नहीं कर पाते, क्योंकि वेतन मिलने के साथ ही उन्हें लिए हुए ऋण की ब्याज चुकानी पड़ती है। वे हमेशा कर्ज़ में ही डूबे रहते हैं। आप दोनों उन्हें इस दयनीय स्थिति से छुटकारा दिलाने का प्रयास करें।" हम दोनों ने बड़ी दौड़-धूप करके संस्थान के कर्मचारियों के लिए पंजीकृत 'ऋण-समिति' का गठन कर लिया। ब्याजखोर कुछ अध्यापकों ने छिपे रूप में इसका विरोध भी किया। आज वही समिति जरूरतमंद कर्मचारियों को ढाई लाख रूपये तक का ऋण देने में सक्षम है। नये भवन में आने पर 1980 के बाद संस्थान कर्मचारी संघ की ओर से एक कैन्टीन भी कुछ वर्षों तक चलाई गई। | ||||||||||||
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