वैश्वीकरण के दौर में हिंदी का स्वरूप
- मनोज पांडेय
वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप दुनिया की तमाम भाषाओं की भांति हिंदी के स्वरूप, क्षेत्र एवं प्रकृति में बदलाव आया है, प्रसार में वृद्धि हुई है। हिंदी न सिर्फ भारतीय मंडल अपितु समूचे भूमंडल की एक प्रमुख भाषा के रूप में उभरी है। यह हकीकत है कि नब्बे के दशक में विश्व बाजार व्यवस्था के तहत बहुप्रचारित उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण की प्रकृति से भारत अछूता नहीं रह सकता था। देर–सबेर उसे भी वैश्विक मंडी में खड़ा होना ही था। जाहिर है इस वैश्वीकरण ने जहाँ एक तरफ मुक्त बाजार की दलीलें पेश की, वहीं दूसरी तरफ दुनिया में एक नई उपभोक्ता संस्कृति को जन्म दिया, जिससे जनजीवन से जुड़ी वस्तुएं ही नहीं, भाषा, विचार, संस्कृति, कला सब–कुछ को एक ‘कमोडिटी’ के तौर पर देखने की प्रवृत्ति विकसित हुई। भाषा के रूप में निश्चय ही इस नवउपनिवेशवादी व्यवस्था ने राष्ट्रों की प्रतिनिधि भाषाओं को चुना। बहुभाषिक समाज व्यवस्था वाले भारत में हिंदी चूँकि संपर्क और व्यवहार की प्रधान भाषा थी इसलिए हिंदी को वैश्विक बाजार ने अपनाया। यहाँ वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप हिंदी के विकास–विस्तार पर जाने से पूर्व वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बारे में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक, प्रसिद्ध समाज विज्ञानी प्रो. आनंद कुमार की राय का उल्लेख आवश्यक है। उनके अनुसार वैश्वीकरण की प्रक्रिया में सात तत्व शामिल हैं, ये हैं– एक तो आधुनिकीकरण की प्रक्रिया, दूसरा–माध्यम वर्ग, तीसरा–बाजार, चौथा–संचार माध्यम, पाँचवाँ–बहुउद्देशीय कंपनियां, छठा–आप्रवासन और सातवाँ–सम्पन्नता। ये सात चीजें मिलकर वैश्वीकरण को आधार देती हैं और इनमें से दो चीजें हैं जो कि देशी भाषाओं के अनुकूल हैं। एक है बाजार और दूसरा संचार माध्यम। निश्चय ही वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिंदी के विकास–विस्तार को इन्हीं दोनों आयामों–बाजार और संचार माध्यम से देखना होगा। कहने की गरज नहीं, वैश्वीकरण की मूल अवधारणा अर्थकेन्द्रित है। अर्थोन्मुखी होने के कारण ही वैश्वीकरण का समूचा प्रासाद, चाहे भाषा को लेकर हो या विचार को, संस्कृति को लेकर हो या तकनीक को, उपभोक्तावादी है।
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