सांस्कृतिक अस्मिता के संदर्भ में हिंदी के विविध रूप
- एल. सुनीता बाय
भाषा संस्कृति का दर्पण है और इसमें संस्कृति का प्रतिबिंब उभरता है। किसी भी भाषा को देखकर उसकी संस्कृति का अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे भारतीय संस्कृति धर्म–दर्शन–प्रधान मानी जाती है। इसलिए भारतीय भाषाओं में धार्मिक शब्द प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। जब एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के सांस्कृतिक प्रभाव को शताब्दियों से ग्रहण करता रहा है तो उसमें दूसरी भाषाओं के शब्दों की बाढ़ ही आ जाती है। जहाँ तक हिंदी का संबंध है, यह सोलहों आने सत्य साबित होता है। संस्कृति वही है जिस चेतना द्वारा जीवन के समग्र व्यापारों का संचालन होता है। प्राचीन और अर्वाचीन के भेद से मुक्त होकर निरन्तर गतिशील बना रहना, यही उच्च संस्कृति का लक्षण है। जो भाषा संस्कृति का यह स्वरूप सार्थक बनाती है वह उच्चता का प्रतीक बन जाती है। हिंदी के पक्ष में कहें तो प्रारंभ से आज तक यह भाषा ऐसी ही एक गतिशील संस्कृति को प्रतिबिंबित करती आ रही है। तभी तो वह आज भारत की राष्ट्रभाषा बन सकी है। फलदायकत्व जितना जिस संस्कृति में होता है उतना ही वह भाषा को प्रतिबिंबित करती है। जीवन की उन्नति तथा विकास के लिए अनूकूल वातावरण इससे बन जाता है। भारतीय संस्कृति में यही होता आ रहा है। इस संस्कृति के अनंतकालीन प्रयास की परिणाम है कि यहाँ भाषाएँ मानव की जीवन–शक्ति के साथ निरंतर गतिशील बनती रही है। हिंदी इसका अपवाद नहीं है। लोकहितकारी तत्वों की संयोजना की प्रतिबिंब हिंदी भाषा की और एक विशेषता रही है। लोक कल्याण भारतीय समाज की सांस्कृतिक सजावट है और हिंदी के साथ–साथ भारतीय भाषाओं में यह प्राणदायिनी शक्ति रही हे। तभी तो हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ विश्वमैत्री की भावना से परिपुष्ट मानी जाती है। ये भाषाएँ प्रेम की भाषा बोलती हैं। कबीर, रहीम, तुलसी और रसखान ने इसी प्रेम का उल्लेख किया है। कबीर ने कहा है कि प्रेम के ढाई अक्षर किसी को भी पंडित बना देते हैं। जायसी इसी का समर्थन करते हुए कहते हैं–
तुर्की अरबी हिंदवी भाषा जेती आहिं
जाने मारग प्रेम का सबै सराहै ताहिं
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