गवेषणा 2011 पृ-11
संपादकीय
पहली दृष्टि है प्रत्ययवादी यानी भाववादी दृष्टि और दूसरी यथार्थवादी यानी रियलिस्टिक। पहली दृष्टि के साथ लिजलिजी किस्म की बाल–सुलभ भावुकता जुड़ी हुई है– एक भित्तिहीन आदर्शवाद और दिवा-स्वप्न। भाववादियों की 'महापराक्रमी हिंदी' का अश्वमेधी अश्व इस देश समेत समूचे संसार की कमजोर-सबल सभी बोलियों और भाषाओं को रौंदकर विश्व-विजयी अभियान से अब बस लौटने ही वाला है। उसने इस देश समेत संसार की समस्त बोलियों-भाषाओं को उनकी 'औकात' बता दी है और तथाकथिक हिंदी-प्रेमी विश्व-विजयिता हिंदी के सर्वोत्तम उत्तराधिकारी के पद पर आसीम आत्ममुग्ध हैं। ऐसे हिंदी-प्रेमी हिंदी की अनन्य अनूठी रचना-सरंचना पर भी उसकी बलैया ले रहे हैं-कहीं उसे किसी की नजर न लग जाए। ऐसे हिंदी के अंध भक्तों के लिए हिंदी कल्पवृक्ष है, कामधेनू है, जो हर वस्तु और दृष्टि से संपन्न है। लेकिन यथार्थवादी इसे अनुर्वर और बंध्या कहेंगे। यथार्थवादी दृष्टि अपने मूल स्वभाव के कारण चीजों को इस प्रकार देखना पंसद करेगी, जिसमें उसकी आत्मा और उपयोगिता ही मौजूद न हो। चूंकि भाषा भी एक वस्तु है, अत: उसे देखने का यथार्थवादी ढंग भी छिद्रान्वेषी और ना-नुकुर वाला ही होगा। भाववादी हिंदी को सुदूर पूर्व में संपर्क भाषा और राष्ट्रभाषा साबित कर सुदूर भविष्य में उसकी विजय-अभियान-गाथा को प्रशास्ति-गान की तरह गाते हैं तो अति उत्साही यथार्थवादी इस तथ्य को अतीत में कुछ दूर तक ही स्वीकार करते हुए हिंदी के वर्तमान रूप के बजाय एक अन्य भाषा उर्दू या फिर हिंदुस्तानी के सह-अस्तित्व और सह-भूमिका पर बल देते हैं। उनका यह मानना कुछ हद तक सही भी है। वैसे भी आज की हिंदी सौ बरस से अधिक पुरानी नहीं है। अति उत्साही यथार्थवादी अधिकांशत: देसी अंग्रेजीदां लोग हैं, जिन्हे उनकी भंगिमा के कारण प्राच्यवादी यानी ओरियंटलिस्टिक्स समझा जा सकता है।
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