भाषा और जन–विसर्जन
- लालसा लाल तरंग
सामाजिक परिवर्तन और विकास प्रत्येक स्थिति में चीजों का, इसलिए भावों और विचारों का तथा उसकी अभिव्यक्ति का स्वरूप बदलता है, यह स्वरूप एक विशिष्ट और एक अर्थ में सीमित दायरे का निर्माण करता है। सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में संप्रेषण के माध्यमों में भी नए परिवर्तन होते रहते हैं। ‘सामाजिक परिवर्तन’ का आर्थिक परिवर्तन की दिशाओं में अनिवार्य संबंध होता है, इसलिए ‘भाषायी सृजनशीलता’ इस परिवर्तन से अनिवार्यत: संबंध रखती है। जब भी सामाजिक रूप बदलते हैं, तब–तब विचारधारात्मक संप्रेषणों के रूपों का निर्माण करते हैं। यह ध्यातव्य है कि भाषा का जन्म संप्रेषण के माध्यम के रूप में ही हुआ, चाहे उसे व्यक्त करने के रूप किसी भी तरह के रहे हों। संकेतों में प्रतिबिंबित भाषा के प्रारंभिक रूप भी संप्रेषण के माध्यम ही हैं। एहसास के कंपन जो गोलाई या लकीरों में ढलकर अक्षर बन जाते हैं, भाषा के निर्माण के आधार होते हैं। इसलिए समाज के एहसास की सच्ची और सार्थक अभिव्यक्ति भाषा में ही हो सकती है। डॉ. रामविलास शर्मा का मानना है कि ‘‘इतिहास का निर्माण शताब्दियों के अनुसार नहीं होता। सामाजिक और आर्थिक विकास के नियमों के अनुसार होता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में, वास्तव में उसके अन्तिम चरण में पंजीवाद के रूप में बहुत परिवर्तन हुए।’’ उनका मानना था कि ‘‘भाषा मनुष्य के आपसी व्यवहार का मुख्य साधन है। शब्दों को नकारने का, भाषा को नकारने का, मतलब है कि मानवीय संबंधों का नकारना।............ वास्तव में मनुष्य संगठित होकर अपना भाग्य बदले, इसके लिए वे भाषा का ही व्यवहार करेंगे और इसलिए ये तमाम पूंजीवाद के समर्थक भाषा पर ही प्रहार करते हैं और उसे निरर्थक और व्यर्थ बताते हैं।’’ मनुष्य में इच्छा भी है और उसे रूप देने का सामर्थ्य भी। यही एक ऐसी बात है जिसने मनुष्य को संसार का अप्रतिद्वंद्वी जीव बना दिया है।
लेकिन एक बार भाषा के एक रूप ग्रहण करने के बाद उसके कई रूप बन जाते हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा, साहित्यिक भाषा या रचना– भाषा में अंतर होता है लेकिन यह अंतर इतना नहीं होता कि भाषा की पूरी अस्मिता ही बदल जाय।
|