गवेषणा 2011 पृ-15
प्रयोजनमूलक हिंदी के विविध रूप
प्रयोजनमूलक हिंदी: स्वरूप और संरचना
भाषा, मनुष्य के पास ऐसा साधन है जिसके माध्यम से व्यक्ति एक दूसरे के संर्पक मे आता हैं। चूँकि भाषा का प्रयोग समाज में किया जाता है और समाज बहुमुखी होता है अत: भाषा में अनेकरूपता देखने को मिलती है। इसी अनेकरूपता के कारण भाषा में विभिन्न प्रकार के 'विकल्पन' (Variations) दिखाई देते हैं। भाषा में प्राप्त होने वाले क्षेत्रीय, सामाजिक एवं प्रयोजनमूलक रूप भाषा विकल्पनों के ही उदाहरण हैं जो विभिन्न प्रकार के प्रयोक्ताओं द्वारा विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न संदर्भों में, भाषा का प्रयोग किए जाने के फलस्वरूप विकसित होते हैं। भाषा विकल्पनों को दो भांगो में बांटा जाता है। 'प्रयोक्ता सापेक्ष' तथा 'प्रयोग सापेक्ष'। प्रयोक्ता सापेक्ष विकल्पों का कारण भाषा का प्रयोक्ता होता है। ये विकल्पन दो प्रकार के होते हैं-क्षेत्रीय विकल्पन तथा सामाजिक विकल्पन। क्षेत्रीय विकल्पनों का संबंध प्रयोक्ता के रहने के स्थान (भौगोलिक क्षेत्र) से होता है तथा भाषा के ये रूप 'क्षेत्रीय रूप' कहलाते हैं। सामाजिक विकल्पन उन भाषा विकल्पनों को कहते है जो प्रयोक्ता के सामाजिक स्तर भेद के कारण दिखाई देते है। भाषा के ऐसे शब्दों को 'सामाजिक शैलियां' कहा जाता है। प्रयोग सापेक्ष विकल्पनों के केन्द्र मे 'भाषिकी प्रयोग' होता है। इसको भी दो भागो में विभक्त किया जाता है- प्रयुक्ति सापेक्ष विकल्पन तथा भूमिका सापेक्ष विकल्पन। प्रयुक्ति सापेक्ष विकल्पन भाषा के वे भेद हैं जो भाषा के किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होने पर सामने आते हैं। कार्यालयीन भाषा, तकनीकि क्षेत्र की भाषा, पत्रकारिता की भाषा आदि भाषा रूप प्रयक्ति रूप है। जहाँ तक बात 'भूमिका सापेक्ष विकल्पनों' की है, इनका संबंध इस बात से है कि भाषा का प्रयोग करते समय प्रयोक्ता वक्ता की भूमिका का निर्वाह कर रहा है अथवा श्रोता की। देखा जाए तो भाषा, वक्ता और श्रोता के बीच संवाद का ही परिणाम होती है।
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