गवेषणा 2011 पृ-99
हिंदी: संपर्क भाषा की एक जीवंत परंपरा
देश को भावनात्मक एकता में बांधने और जनमानस में आत्मसम्मान तथा आत्मनिर्भरता की भावना जागृत करने में हिंदी की भूमिका सराहनीय है। इसने सदियों से सांस्कृतिक और धार्मिक समन्वय के लिए जोड़–भाषा के रूप में तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, गुजराती, मराठी, पंजाबी, उसमिया, उड़िया, बंगला, हिंदी, नेपाली आदि विभिन्न भाषा–भाषियों को एकसूत्रता प्रदान करने का प्रयत्न किया है। अन्तर्प्रान्तीय व्यवहार की भाषा बनकर इसने लोगों को एक–दूसरे के निकट लाने में सहायता प्रदान की है। भारत की समन्वयात्मिका–दृष्टि के संपोषण और अभ्युत्थान में संपर्क–भाषा की महतो भूमिका का निर्वहन किया है। संस्कृत के बाद हिंदी ने ही पूरब–पश्चिम, उत्तर–दक्षिण के धार्मिक तथा सांस्कृतिक केंद्रों, धामों, मन्दिरों, मठों को जोड़ने तथा कला–कौशल, स्थापत्य, चित्र एवं मूर्ति आदि कलाओं से परिचित करवाने और विभिन्न जीवन–शैलियों, विचारों एवं चिन्तनों को एक–दूसरे तक पहुँचाने में भाषिक मदद की है। संतों, भक्तों, आचार्यों की समृद्ध मध्यकालीन परंपरा की गतिशीलता एवं जनता–जनार्दन तक उनकी पहुँच में हिंदी की सहायता की कोई बराबरी नहीं है। तत्व चिंतकों, मनीषियों, उपदेशकों ने इसे दुलारा है तो आम जनता ने हृदय से अपनाया है। अपने वैशिष्ट्य के कारण ही यह वद्रिकाश्रम से रामेश्वरम् तक और दक्षिण के भक्त आचार्यों की वाणी की शोभा बनकर दक्षिण से उत्तर तक सबको जोड़ती रही है। दिल्ली और आगरा के व्यापारियों के साथ सुदूर पूर्वोत्तर और दक्षिण राज्यों एवं महानगरों तक पहुँचकर व्यापार की भाषा बनी है। सर्वग्राहाता के गुण ने हिंदी को जाति, धर्म और प्रान्त से ऊपर उठाकर संपर्क भाषा के आसन पर विराजमान किया है। इसमें इसका लचीला स्वरूप काफी सहायक रहा है।
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