- लेखक- रंजना अरगड़े
एक दिन अचानक मुझे एक पत्र मिला कि मैं केंद्रीय हिंदी संस्थान की विद्या सभा की सदस्या के रूप में नामित हो गयी हूँ। मेरे लिए यह प्रसन्नता और गर्व की बात थी। जिस संस्था की परिकल्पना हिंदीतर भाषी ने की हो, वही आज हिंदी को केवल देश में ही नहीं, विदेश में भी जिस वैज्ञानिक पद्घति से ले जा रही है, वह अपने आप में विशिष्ट और प्रशंसनीय बात है। ऐसी संस्था से जुड़ना किसे अच्छा न लगेगा। संस्थान हिंदी का कार्य करता है, अत: संस्थान के प्रति आदर था। गवेषणा पत्रिका पढ़ती थी। पर संस्थान से मेरा संबंध औपचारिक अधिक था। भारत के किसी भी हिंदी छात्र का जैसा होता है। जब कमला प्रसाद जी वहाँ के उपाध्यक्ष बने तो संस्थान के प्रति एक अतिरिक्त भाव यूँ जुड़ा कि अपने कमला प्रसाद जी वहाँ हैं। पर बस इतना भर। प्रत्यक्ष रूप से मैं दो बार संस्थान आईं हूँ। दोनों ही बार संस्थान के मेरे अनुभव अत्यंत प्रतिकर एवं समृद्धि भरे थे।
आगरा स्थित संस्थान के महिला छात्रावास ने भी मुझे प्रभावित किया। मैंने देखा कि वहाँ भारत के अनेक प्रांतों के विद्यार्थी साथ रहते थे। असल मे यह बात ही अपने आप में बड़ी विलक्षण है। हिंदी पढ़ने वाले छात्रों को हिंदी माध्यम में और हिंदी पढ़ते हुए जब इस तरह का अनुभव मिले, तो राष्ट्रीय एकता के लिए और कोई प्रयत्न करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। बहुत कम ऐसे संस्थान होंगे, जहाँ हिंदी के विद्यार्थियों को अपने देश और विदेश के छात्रों के साथ एक साथ रहने का अवसर मिलता होगा। मुझे संस्थान की कक्षाओं में जाने का अवसर भी मिला था। एक ही बेंच पर गुजरात, महाराष्ट्र, असम, केरल आदि के छात्रों को पास-पास बैठा देखना, भारत को देखने जैसा ही लगता है। संस्थान की परिकल्पना करने वाले श्री मोटूरि जी ने राष्ट्रीयता का यह जो स्पप्न देखा था, उसका ठोस स्वरूप आज कितना अनिवार्य है, यह तो वही समझ सकता है, जो सचमुच में देश से प्रेम करता है।
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मैं पहली बार संस्थान आई थी, विद्या सभा की बैठक में उपस्थित होने के लिए। उस समय डॉ. शंभुनाथ जी संस्थान के निदेशक थे। वह बैठक इस रूप में महत्वपूर्ण थी कि उसमें संस्थान को डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा मिले, इस संबंध में प्रस्ताव पारित होना था। फिर वह प्रस्ताव आगे भेजा जाना था। संस्थान के लिए, जो कि हिंदी को लेकर तरह-तरह के पाठ्यक्रम चला रहा है, यह निश्चय ही एक महत्वपूर्ण निर्णय था। इस निर्णय को लेकर आपत्ति किसी को नहीं हो सकती थी। उसी बैठक में मुझे उत्तर-पूर्व से आए अनेक लोगों से मिलने का अवसर मिला और अगर मैं भूलती नहीं हूँ तो पूर्वोत्तर के साहित्य पर विशेष रूप से केंद्रित समन्वय पूर्वोत्तर नामक संस्थान की पत्रिका के संबंध में मैंने पहली बार वहीं पर बात सुनी थी।
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