जिम्मेदारी बढ़ती चली गई
केंद्रीय हिंदी संस्थान से मैं इसके जन्म से ही जुड़ा हुआ हूँ। आगरा विश्वविद्यालय के समीप ही नए विजय नगर में मुझे रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। जब मैं विश्वविद्यालय जाता था तो मार्ग में ही एक भवन पड़ता था, जिसमें संस्थान अपने पूर्व रूप में संचालित होता था, जिसमें मेरे परम मित्र और साथी डॉ. तीर्थराज शर्मा और डॉ. द्वारका प्रसाद सक्सैना पढ़ाने आते थे। मैंने उस भवन में भारतीय भाषाओं में समान तत्व विषय पर एक भाषण भी दिया था, जो आगे चल कर हिंदुस्तानी ऐकेडमी, इलाहबाद से बाद में प्रकाशित हुआ। श्री नावड़ा जी के बाद कुछ दिनों के लिए डॉ. विनय मोहन शर्मा, नागपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक के रूप में आए। तत्पश्चात ही डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा इलाहबाद से, जिनके कार्यकाल में संस्थान को भारत सरकार ने स्वरूप प्रदान किया, जो आज तक बरकरार है। वर्तमान नया भवन तो बहुत बाद में सन 1980 में तैयार हुआ। इस प्रकार में हिंदी संस्थान से विविध रूपों से जुड़ा रहा। अकादमिक, परिषद, चयन समिति, पाठ्यक्रम समिति तथा अन्य समितियों से जुड़ा रहा। कई बार निदेशक के रूप में कार्य करने का आह्वान किया गया, लेकिन मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी में भारतीय भाषाओं का अध्यक्ष-प्रोफेसर बनने के कारण संभव यह नहीं हो सका। केंद्रीय हिंदी संस्थान के तत्वावधान में श्री सु. भारती पुरस्कार से राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया। इस संस्थान की उदारता थी कि मैं चुना गया। इस प्रकार उत्तरोत्तर में संस्थान में नए-नए निदेशक आते गए और मेरे संबंध उनसे अधिकाधिक प्रगाढ़ होते गए, चाहे वे ब्रजेश्वर वर्मा हों, गोपाल शर्मा हों, बी.जी. मिश्रा हों या महावीर सरन जैन आदि। इस प्रकार संबंधों की प्रगाढ़ता के कारण गतिविधियों में मेरी संस्थान के प्रति जिम्मेदारी बढ़ती चली गई और मैं इसे लगातार निभाता रहा। | ||||||||||||
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