- लेखक- डॉ. कृष्ण कुमार शर्मा
केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के लिए मेरी रुचि पूज्य प्रो. रमानाथ सहाय, स्व. प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, प्रो. बाल गोविन्द मिश्र, प्रो. रस्तोगी और प्रो. माणिक गोविन्द चतुर्वेदी की प्रेरणा से हुई थी। सन 1967 में उदयपुर में उच्च भाषा-विज्ञान का एक ग्रीष्मकालीन पाठ्यक्रम एन.सी.ई.आर.टी. ने आयोजित किया था। उदयपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रहते हुए ही मैं उस पाठ्यक्रम में प्रशिक्षु था। उस पाठ्यक्रम की अवधि में तब अपने देश के इन श्रेष्ठ भाषा विज्ञान के विद्वानों की कृपा से मैं शैली विज्ञान के प्रति आकृष्ट हुआ और इस विषय पर मेरी तीन पुस्तकें भी प्रकाशति हुईं। एक बार आगरा में प्रो. रमानाथ सहाय से भी भेंट हुई, मैं उनके निवास पर गया था। जलेबी और समोसे का नाश्ता मुझे आज भी याद है। तभी डॉ. सहाय ने कहा था- संस्थान में आ जाओ। फिर मेरा सारा सोच संस्थान में आने की बात पर केंद्रित हो गया।
संस्थान में मुझे सदैव लघु भारत का आभास होता था। सिक्किम, मणिपुर, मिजोरम से लगाकर केरल और कर्नाटक के छात्र संस्थान में आते थे। मुझे उन्हें देखकर 'माईग्रेटोरी' पक्षियों की याद हो आती थी। ये छात्र आते, 8-10 महीने रुकते, अपने-अपने प्रदेश की संस्कृति की खुशबू बिखेरते, संस्थान को रंगों से बुनते और चले जाते। पीछे रह जाती अदृश्य होती हुई भी साकार स्मृतियाँ। संस्थान भारत का अपूर्व सांस्कृतिक मिलन केंद्र है। मैंने संस्थान के परिवेश को शिद्दत के साथ जिया। 1988 में मुझे हैदराबाद केंद्र भेज दिया गया, मैसूर केंद्र भी मेरे ही पास था। हैदराबाद का शैक्षिक, भाषिक और सांस्कृतिक परिवेश उदार किंतु दृढ़ था। वहाँ काम किया जा सकता था, मैंने किया भी। दक्षिण के भीतरी अंचलों में जाने का सुअवसर यहीं मिला। भाषा की भिन्नता कभी बाधक नहीं बनी। इस अंचल के हिंदी अध्यापक अधिक शिष्ट और सहृदय हैं। भारत के इस दक्षिण अंचल की वायु में घुली कॉफी की ताजा सुगंध मेरे मानस को इस समय भी, तरंगायित कर रही है। कर्नाटक प्रदेश की लाल माटी, लहराते खेत और कद में छोटे किंतु फलों से लदे आम के पेड़ मानस में जीवंत हो रहे हैं।
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1978, डॉ. गोपाल शर्मा संस्थान के निदेशक थे। 8 मार्च को दिल्ली में साक्षात्कार था और मेरा रीडर के पद पर चयन हुआ। सीधे हैदराबाद केंद्र पर नियुक्ति हुई। केंद्र प्रभारी डॉ. जगन्नाथन थे। उन्होंने अपने संस्कारों के अनुरूप मुझे आदर और प्यार दोनों दिए। तब हैदराबाद केंद्र पर डॉ. चतुर्भुज सहाय, डॉ. महादेव बासुतकर, डॉ. मोहब्बत सिंह, मान सिंह चौहान, डॉ. वशिनी और डॉ. सीताराम मेरे साथी थे।
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