- लेखक- डॉ. पुष्पा श्रीवास्तव
नागालैण्ड के बाद मिजोरम के दो पाठ्यक्रम स्नातक और अस्नातक आए। इनके साथ समस्या यह थी कि ये हिंदी बिल्कुल नहीं जानते थे और जो स्नातक नहीं थे, अंग्रेजी भी नहीं जानते थे। अत: हिंदी में भाषा व्यवहार करना और पढ़ना एक नवीन अनुभव था। याद आयी अन्ना एण्ड दी किंग ऑफ स्याम की कहानी। इसका लाभ उठाते हुए कुछ संकेतों की सहायता से हिंदी और बाद में मनोविज्ञान पढ़ाया। सुदूर पूर्व की इन जनजातियों की संस्कृति का परिचय तो मिला ही उनके खान-पान और वेशभूषा आदि की भी जानकारी मिली। मिजो छात्र-छात्राओं द्वारा "बैम्बू नृत्य" प्रथम बार आगरा में एम. डी. जैन इंटर कॉलेज में कराया गया, जिसमें उन्हें पुरस्कार मिला। विदेशी से लगने वाले छात्रों को आगरा की सड़कों पर देखकर मनचले चकित थे, पर उनसे मेल-जोल बढ़ाने का साहस नहीं जुटा पाते थे।
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केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा में मनोविज्ञान की प्राध्यापिक के रूप में जुलाई, 1970 में प्रवेश पाकर शिक्षा जगत की एक विशेष संस्था प्राप्त हुई। केंद्रीय हिंदी संस्थान का उस समय अभ्युदय काल था। दिल्ली कैम्पस बन चुका था और हिंदी के प्रचार-प्रसार का क्षेत्र भी विस्तार पा रहा था। भारत सरकार की राष्ट्रभाषा प्रचार-प्रसार की नीति के अंतर्गत उत्तर पूर्व के राज्यों में नागालैण्ड और मिजोरम आदि प्रदेश चुने गए थे। नागालैण्ड के लिए चतुर्थ वर्षीय पाठ्यक्रम बनाना था। जिज्ञासावश मैंने जब तत्कालीन निदेशक डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा जी से पूछा कि हिंदी के चार वर्ष के पाठ्यक्रम में कण्टेंट क्या होगा? तो उन्होंने शिक्षाविद होने के नाते मेरी अज्ञानता पर प्रश्नचिन्ह लगाया। मैंने पुन: जब अपने प्रश्न को दुहराया तो उपस्थित सभी अध्यापकों को मेरे प्रश्न की गहराई का बोध हुआ। चार वर्ष मात्र हिंदी भाषा पढ़कर कोई विद्यार्थी हिंदी शिक्षक कैसे बन सकता है और उसका मानसिक-बौद्धिक ज्ञानात्मक विकास कैसे सम्भव होगा? डॉ. वर्मा ने तुरंत पाठ्यक्रम में अन्य विषय-हिंदी, समाजिक ज्ञान आदि समाहित कराए।
नागालैण्ड के छात्रों को पढ़ाना अपने आप में विशिष्ट अनुभव था। मनोविज्ञान उनके लिए सर्वथा नया और जटिल विषय था। उनके लिए विषय को बोधगम्य बनाना एक बड़ी चुनौती थी। उनके मानसिक स्तर के अनुरूप ही विषय को सरल बनाने के स्वयं ही उपाय करने पड़ते थे।
धीरे-धीरे नागा, मिजो, छात्र आगरा वासियों के साथ घुलने-मिलने लगे ओर एक-दूसरे कारण उन्हें भी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के विषय में जानकारी देने में संस्थान का योगदान रहा। एक मिजो छात्र तो मुझे अपने प्रदेश में नौकरी देने को तैयार हो गया। उसे लगा कि मिजोरम में यहाँ के अध्यापक अच्छा काम करेंगे।
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