भाषा अध्ययन की नई प्रवृत्तियाँ
अगस्त, 1971 के अंतिम सप्ताह में, शैलीविज्ञान के विशेषज्ञ के रूप में मैंने संस्थान में अपना कार्यभार संभाला। उस समय आंध्र प्रदेश के महाविद्यालयों के हिदीं प्राध्यापकों के लिए आयोजित उच्च नवीकरण पाठ्यक्रम चल रहा था। मुझे प्राध्यापकों को 'शैलीविज्ञान' से इस प्रकार परिचित कराना था कि हिंदी भाषा एवं साहित्य के अध्ययन के लिए वे उसकी उपादेयता से सहमत हो जाएँ। प्राध्यापक अध्ययनशील और प्रबुद्घ थे। उनकी अपनी भी समझ थी और उसका खासा अहसास भी था। भाषण के दौरान प्राय: विवाद की स्थिति आती थी, जो पाठ्यक्रम समाप्त होते-होते सवांद में बदल गई। समापन कार्यक्रम में प्राध्यापकों ने बात का विशेष उल्लेख भी किया। हिंदी में शैलीविज्ञान को प्रतिष्ठित करने और विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में उसे स्वीकृत करवाने की दिशा में संस्थान अपने स्तर पर कदम उठा चुका था। 'हिंदी शिक्षण निष्णात' पाठ्यक्रम में इसे एक प्रश्नपत्र के रूप में सम्मिलित किया गया था। प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव 1970 में शैलीविज्ञान पर प्रसार व्याख्यान दे चुके थे, जो बाद में प्रकाशित भी हुए। अब अगस्त, 1971 से महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के हिंदी प्राध्यापकों के उच्च नवीकरण पाठ्यक्रमों में शैलीविज्ञान की गंभीर चर्चा भी आरंभ हो गई। तत्कालीन निदेशक डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा, जिनके विशिष्ट योगदान का संस्थान के इतिहास में अपना ही स्थान है, इलाहबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व सदस्य के रूप में वे हिंदी अध्यापन और अनुसंधान की स्थिति से स्वयं परिचित थे। वे मानते थे कि यह नई ज्ञानधारा उच्च हिंदी शिक्षा में आनी चाहिए। 1972 के आरंभ में डॉ. वर्मा एक सत्र के लिए विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में अमेरिका के इलिनाय विश्वविद्यालय में रहे, जहाँ उन्होंने अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान विभाग में हिंदी भाषा और साहित्य पर भाषण दिए। डॉ. वर्मा की नवोन्मेषिता से मैं परिचित हो चुका था। मैं स्वयं भी नए काम करने में रुचि रखता था। पूना की अग्रणी संस्था डेक्कन कॉलेज स्नातकोत्तर एवं शोध संस्थान में आधुनिक भाषाविज्ञान के प्रगत अध्ययन केंद्र में दो वर्ष (1969-1971) तक सीनियर रिसर्च फेलो के रूप में कार्य करते हुए मैं भी भाषा-अध्ययन की नई प्रवृतियों से परिचित हो चुका था। डॉ. वर्मा के विदेश से लौटने पर मैंने उनके सामने शैलीविज्ञान पर एक अखिल भारतीय संगोष्ठी आयोजित करने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया। नवम्बर, 1972 में हिंदी प्रदेश के विश्वविद्यालयों के हिंदी प्राध्यापकों के लिए उच्च नवीकरण पाठ्यक्रम आयोजित किया गया। उसी दौरान संदर्भित गोष्ठी भी हुई। वरिष्ठ विद्वान आए- डॉ. नामवर सिंह, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, डॉ. अशोक केलकर, डॉ. अमर बहादुर सिंह, डॉ. दामोदर ठाकुर, डॉ. रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव आदि। दो दिन तक निबंध-प्रस्तुति, चर्चा-परिचर्चा, विवाद-संवाद की गहमागहमी रही। सभी उल्लसित, नव-ज्ञान-ग्रहण के प्रति उत्कंठित और अर्जित ज्ञानराशि को अधिक समृद्घ करने के लिए उत्साहित। यद्यपि जैसा होता है, विसंवादी स्वर भी सुनने को मिले। वरिष्ठ अभ्यागत विद्वानों ने अकादमिक उपलब्धि पर संतोष प्रकट किया। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा ने मुक्त कंठ से गोष्ठी की सफलता को स्वीकार करते हुए कहा, "इतनी अच्छी गोष्ठी पहले नहीं हुई"। गोष्ठी में प्रस्तुत निबंध 1976 में "शैली और शैलीविज्ञान- शीर्षक से प्रकाशित हुए। | ||||||||||||
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