मेरे कैमरे से!
मैं साहित्यिक व्यक्ति तो नहीं हूँ जीवन में कॉमर्शियल आर्ट का कार्यकर्ता रहा हूँ, जो कालांतर में धीरे-धीरे फोटोग्राफी का रूप ले गया। 1955 से लेकर 1959 के मध्य मैं सबसे पहले केंद्रीय हिंदी संस्थान के संपर्क में तब आया, जब मैं बेलनगंज स्थित आगरा टिन फैक्ट्री में आर्टिस्ट के रूप में काम करता था। वहाँ सरसों के तेल को भरने के लिए कनस्तर बनते व प्रिंट होते थे। सरसों का तेल आगरा से बंगाल एवं उड़ीसा प्रदेशों में अधिक निर्यात किया जाता था। कनस्तर के चारों ओर उन प्रदेशों की भाषा व लिपि में तेल से संबंधित प्रचार हेतु वाक्य लिखने होते थे, जो मैं नहीं लिख पाता था। मुझे ज्ञात हुआ कि आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान के नाम से गाँधी नगर में एक विद्यालय चलता है। मैं ढूँढ़ता हुआ गाँधी नगर पहुँचा। वहाँ डॉ. विनय मोहन जी, निदेशक के दर्शन हुए। वहाँ बंगला व उड़िया के छात्र मिल गए। दोनों भाषाओं से मुझे बहुत योगदान प्राप्त हुआ। मेरी समस्या का निदान हो गया। वे छात्र बड़े सरल और उदार प्रवृत्ति के थे। संगठनात्मक प्रेरणा के कारण मेरा उनसे व्यक्तिगत लगाव भी हो गया। इसके पश्चात इस मध्य में फोटोग्राफी व्यवसाय से भी काफी जुड़ गया था और मैंने कलाकुंज के नाम से अपना व्यवसाय शुरू कर दिया था, जो आज अपने बच्चों के माध्यम से स्पीड कलर लैब के रूप में जनता की सेवा कर रहा है। आगरा में सूर स्मारक मण्डल के नाम से सूर स्मारक का विकास होने के कारण मैं सूरकुटी जाता था। उस समय डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक थे और उन्होंने सूर पर काम करके ही शायद पेरिस से डाक्टरेट प्राप्त की थी। उनसे सूर स्मारक मण्डल पर भेंट हो गई और फिर पुन: केंद्रीय हिंदी संस्थान से विधिवत फोटोग्राफी हेतु जुड़ गया, जो लगभग 1990 तक चला। मुझे अपने ऊपर तरस आ रहा है कि मैं देश और विदेश के महान विद्वानों के सम्पर्क में फोटोग्राफी हेतु तो आया, परंतु साहित्यिक रूचि होते हुए भी उनके भाषणों व साहित्यिक वार्ता के मध्य रहते हुए भी बहुत अधिक साहित्यिक लाभ न उठा पाया। कारण कि मेरा सारा ध्यान चिड़िया की आंख की भांति अपने मुख्य लक्ष्य फोटोग्राफी में ही लगा रहता था। छात्रों के मध्य वार्तालाप से पता चला कि यह संस्थान आगरा में क्यों खोला गया है। उन्होंने बताया कि आगरा मात्र ऐसा हिंदी क्षेत्र है, जिसकी बोली, भाषा, मुहावरे आदि उसी खड़ी बोली में होते हैं, जिसमें हिंदी लिखी जाती है। यहाँ का छोटा बच्चा भी व्याकरण की दृष्टि से सही हिंदी बोल लेता है, जैसे कि हाथी जाता है और रानी आती है। शब्द सादृश्य होते हुए भी वह व्याकरण का लहजा जानता है। आस-पास के शहरों में ब्रज और अवधी का पुट होने से बोलने का ढंग बदला मिलता है। हिंदी सिनेमा की बोली व भाषा भी पूर्णतया आगरा की बोली से मेल खाती है। केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा में कई स्थानों पर परिवर्तित होता रहा है। | ||||||||||||
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