समन्वय छात्र पत्रिका-2011 पृ-11
हम आज भी पराधीन हैं
-चन्द्रभानु साहु
असल बात समझने की यह है कि जब कोई कुछ बोलता है और हमें यह भी ज्ञात होता है कि यह बात गलत है। परन्तु हम चुप रहते हैं। गूँगे, बहरे या गँवार जैसे सुनकर भी अनसुना करते हैं, उसे अपने विवेक रूपी तराजू में तोलना उचित नहीं समझते या तौल कर भी उसे जुबाँ रूपी तलवार पर नहीं लाना चाहते हैं। यह है हमारी पराधीनता। जब हम किसी बडे़ अधिकारी को किसी छोटे अधिकारी को फटकारते हुए देखते हैं, तब भी हम चुप रहते हैं ? क्योंकि हमें अपने स्थान की चिन्ता है, अपनी मजबूरी का आभास होता है, अपनी जरूरतों का ज्ञान है। यही तो हमारी पराधीनता है कि हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते, कुछ कहना चाहकर भी कह नहीं सकते। मन तो चाहता है कि कुछ बोल डालूँ, कुछ बक डालूँ, जिससे कुछ हो या ना हो अपने मन को शान्ति तो मिल जाएगी। अन्दर जल रही आग से तो कुछ राहत मिल जाएगी, पर ऐसा होता ही नहीं। जब हमें ऐसा लगता है कि हमने कोई गलत काम किया ही नहीं परन्तु हमें गलत समझा जा रहा है। हम इससे निकलने का कोई उपाय करते हैं, यह उपाय अगर सत्य और न्याय का होता है तो यह समझा जाता है कि हम चोरी और सीना जोरी कर रहे हैं। अगर उपाय विनम्रता, सरलता से हो तो समझा जाता है कि हम अपने दोषों को या तो छिपा रहें हैं या फुसला रहें हैं। यह भी एक प्रकार की पराधीनता है। इसमें हम लोग या तो अपने अधिकारी, पद, स्थान से पराधीन हैं या अपने विवेकशीलता और संस्कार से। यद्यपि हम लोग दूसरे की पराधीनता को स्वाधीनता का नाम दे सकते हैं। प्रवीण
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