समन्वय छात्र पत्रिका-2011 पृ-7
एक और लोकनायक की जरूरत है-सागरिका महान्ति
जब-जब होहि धरम की हानि
आधुनिक युग को विज्ञान का युग कहा जाता है। मनुष्य अपनी सद्भावना और आविष्कारों के कारण अपने आपको श्रेष्ठ समझता है। वेदों में लिखी गई मानव की श्रेष्ठता को मनुष्य आज चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा है कि मानव ही संसार में श्रेष्ठ प्राणि है। पर क्या यह सच है ? मानव क्या सच में श्रेष्ठता का अधिकारी है? हजारों साल पहले कही गई बात की सत्यता की क्या आज परीक्षा की जाए या कुछ बनावटी और ऊपरी बातों से ही इसको प्रमाणित कर दिया जाए। मानव आज अपनी मानवनता का गला घोंट कर भी मानव होने का दावा कर रहा है। समस्त मानवोचित गुणों को भुलाकर उसने मनुष्यत्व को ही खो दिया है। आज उसके मन में केवल व्यक्तिगत स्वार्थ ने घर कर लिया है। उसने समस्त संसार को भुलाकर सिर्फ अपने आपको ही सर्वोपरि माना है। यह सब करने से ये या फिर गला फाड़कर चिल्लाने से क्या सच्चाई छुप जाएगी या फिर इसकी सत्यता साबित हो जाएगी। आज समाज की स्थिति क्या है? यह एक सबसे बड़ा प्रश्नचिन्ह है। आज के युग के श्रेष्ठ प्राणी मानव के पास क्या इन सवालों का कोई जवाब है। समाज विकास की नहीं अधोगति की और जा रहा है। भगवान बुद्ध के समय में तो केवल समाज में धर्मांधता थी और लोकनायक तुलसीदास के समय समाज का कोई आदर्श रूप नहीं था, पर आज समाज में न जाने ऐसे कितने ही काले धब्बे हैं, जिनकी गिनती करते-करते थक जाएँगे पर गिनती समाप्त नहीं होगी। समाज में तो अत्याचार और शोषण ने घर कर लिया है। धोखेबाजी और लूट, बेइमानी, समाज की पहचान बने हुए हैं। मानव आज अपनी ही मानव जाती पर शोषण कर रहा है। कोई पशु भी ये काम न करे जो मानव कर रहा है। अपने उच्च व्यक्तित्व का तो काई मोल ही नहीं है। उसे वह तो झूठी इज्जत और ऐशोआराम को ही अपना सब कुछ मानता है। यहाँ तक कि जिस भगवान ने उसे बनाया है, उसी को बेच रहा है। उसी भगवान की आड़ में दुनिया को धोखा दे रहा है। धर्म और स्वार्थ के नाम पर समाज को टुकड़ों में बाँट दिया है।
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