समन्वय छात्र पत्रिका-2012 पृ-1
संत कबीर की भक्ति भावना में श्री जगन्नाथमदन मोहन दाश
भौतिक प्राचुर्य सुरा सदृश्य है। यह मनुष्य को उन्नत करता तो है, पर कभी तृप्त नहीं कर पाता। दूसरी ओर आध्यात्मिकता सुशीतल जल की तरह मनुष्य तथा तृप्त जीवन को पवित्र कर देती है। ईश्वरानुभक्ति ही भारतीय दर्शनपुष्ट आध्यात्मिकता का प्रमुख आधार है। बताया गया है, "विश्वास से ही कृष्ण प्राप्त होते हैं, तर्क से नहीं।" महाप्रभु श्री जगन्नाथ केवल ओडिशावासियों के ही परम आराध्य देवता नहीं हैं, बल्कि समग्र विश्व के उपास्य देवता माने जाते हैं। जगन्नाथ (जगत्+नाथ) जगत का अर्थ विश्व और नाथ का अर्थ स्वामी अर्थात् पूरे संसार के स्वामी। श्री जगन्नाथ ओडिशा के 'श्रीक्षेत्र धाम' में ही विराजमान हैं। 'श्रीक्षेत्र धाम' जो चार धामों से श्रेष्ठ माना जाता है, उसका श्रेष्ठत्व प्रतिपादन करते हुए स्कंद पुराण में प्रमाण मिलता है। सर्वेषां चैव देवानां राजा श्री पुरुषोत्तम:। श्री जगन्नाथ केवल देवाधिपति ही नहीं, भक्तों के हृदयापति भी हैं। सभी भक्त श्री जगन्नाथ में अपने-अपने अभीष्ट को प्राप्त करके आनन्दित तथा उल्लसित होते हैं। इस क्रम में शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य और श्री चैतन्य महाप्रभु जैसे अनेक साधक श्रीक्षेत्र भूमि की ओर आकृष्ट होकर पधारे हैं। यह नहीं कि केवल हिंदू धर्म के धर्माचार्य श्रीक्षेत्र में पधारे हों, बल्कि दूसरे धर्म के साधकों ने भी यहाँ पधारकर श्री जगन्नाथ जी के दुर्लभ सान्निध्य को प्राप्त किया है। पांचवीं सदी में जन्में महान संत तथा काव्य पुरुष जी भी श्री जगन्नाथ जी की ओर आकृष्ट होकर श्रीक्षेत्र धाम पधारे थे। कबीर का जन्म सन 1456 को माना जाता है। वे सन 1512 को श्रीक्षेत्र धाम पधारे थे। वे ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। वे कहते थे- मसि कागज छुऔ नहीं, गजपति महाराज के शासन काल में कबीर का ओडिशा आगमन हुआ था। इसकी सच्चाई पुरी स्वर्ग द्वार के निकट स्थित कबीर चौरा मठ वर्ण करता है। यहाँ कबीर वाराणसी से श्रीक्षेत्र पैदल ही आए थे। एक दिन कबीर भगवान जगन्नाथ की आराधना कर रहे थे, अचानक समुद्र का जल भयंकर रूप धारण कर किनारा तोड़ कर श्री मंदिर तक पहुँच गया, यह देखकर सभी आश्चर्यचकित और विचलित हो उठे। राजा और भी चिंतित हो गए। कबीर ने देखा और उपाय सोचा। श्री जगन्नाथ के प्रति कबीर की इतनी प्रगाढ़ भक्ति थी कि उन्होंने अपनी कुबड़ी के सहारे सागर को रोक लिया और एक भयंकर विपत्ति से लोगों को बचाया। सागर अपनी पूर्व स्थिति से कोसों दूर चला गया। कबीर चौरा मठ के सामने अभी भी लिखा हुआ है- कबीर साहिब ने यहीं पर कुबड़ी गाड़ कर सागर को हटाया था।
श्रीक्षेत्र में आने वाले सभी भक्तजन 'कबीर चौरा मठ' के दर्शन किए बिना वापस नहीं जाते। कबीर चौरा मठ के तत्कालीन महन्त श्री नटवर दास के अनुसार कबीर एक अवतारी पुरुष थे। कबीर सतयुग में सत्यकाम, त्रेता में मुनीन्द्र, द्वापर में करुणामय और कलियुग में कबीर थे। श्रीक्षेत्र में प्रवास के समय उन्होंने श्रीक्षेत्र, श्री मंदिर तथा श्री जगन्नाथ के संबंध में एक दोहे की रचना की थी। उनकी दृष्टि से जगन्नाथ कभी काशी के अधिष्ठाता विश्वनाथ तो कभी वृन्दावन के गोपीनाथ प्रतीत होते हैं। उन्होंने लिखा है- ओडिशा जगन्नाथ पुरी में वृन्दावन में रास रचाने के बाद श्रीकृष्ण को श्रीक्षेत्र के रूप में अवस्थान करने की बातें उन्होंने बतायी हैं। उनके अनुसार- वृन्दावन में रास रचाई तब हरि पुरी सिधारे, श्रीमंदिर में श्री जगन्नाथ जी के महाप्रसाद का सेवन करना भक्तों के लिए एक अनोखी अनुभूति होती है। प्रभु के दर्शन के साथ प्रसाद सेवन की एक स्वतंत्र अभिलाषा मन में रहती है। उन्होंने लिखा है- उड़िया मांगे क्षीर खिचड़ी, बंगाली मांगे भात संत कबीर संकीर्ण चिन्तनधाराओं से हमेशा दूर रहते थे। उन्होंने कभी भी अपने आपको किसी एक धर्म सम्प्रदाय की सीमा में नहीं रहने दिया। उनके अनुसार काशी, श्रीक्षेत्र तथा मक्का में कोई अंतर नहीं है, जैसे राम और रहीम में नहीं है। कुछ वर्षों तक श्रीक्षेत्र में निवास करने के बाद वे फिर से वाराणसी प्रस्थान कर गए। यह माना जाता है कि कबीर ने वाराणसी के निकट मगहर नामक स्थान पर सन 1575 में प्राण त्याग दिए थे।
पारंगत
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