समन्वय छात्र पत्रिका-2012 पृ-13:1
चिंताविरेन्द्र कुमार नाग
चिंता मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। संसार में शायद ही कोई ऐसा मनुष्य हो, जो चिंता विहीन हो। चिंता पर गहराई से विचार करने पर चिंता के कई क्षेत्र दृष्टिगत होते हैं। चिंता जहाँ एक तरफ अभाव की चिरसंगिनी बनकर आती है, वहीं दूसरी तरफ लोभ की पुत्री के रूप में भी परिलक्षित होती है। चिंता जहाँ एक तरफ हमें परेशान करती है, वहीं दूसरी तरफ नवसृजन की प्रेरणा देती है। उदाहरण के रूप में हम आदरणीय अण्णा हजारे जी को देख सकते हैं। देश के भविष्य के प्रति उनकी अथाह चिंता ने उनके हृदय को उद्वेलित कर दिया है, जिसके सुफल के रूप में आज हम एक विशाल जन आंदोलन को देख सकते हैं। चिंता की प्रसव पीड़ा के पश्चात ही उम्मीद शिशु जन्म लेता है। निराश्रित चिंता आधार प्राप्ति की असफल कोशिश के पश्चात अब तिमिराछन्न हो जढ़ता की ओर उन्मुख होने लगती है, तो उस 'स्व' का ध्यान आता है। 'स्व' का यह ध्यान उसे आत्मबल एवं आत्मबोध के अक्षय तुंडीर से अलंकृत करता है। ये अक्षय अस्त्र ही मनुष्य को भावी जीव की असंगतियों एवं निराशा के कौरवी समाज से संघर्ष करने की ऊर्जा प्रदान करते हैं। यह दौर असफलताओं के पलायन का दौर होता है। भारतीय इतिहास में ऐसे कितने प्रेरक प्रसंग देखने को मिल सकते हैं। अकबर की चिंता ने ही तो उसे भारतीय इतिहास के शीर्ष पर ला खड़ा किया। सच ही कहा गया है कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक अच्छा, दूसरा इसके विपरीत। चिंता कभी तो हमें नवसृजन की प्रेरणा देती है, तो कभी भयभीत कर कुपथगामी बना देती है। यह अच्छे बुरे का विवेक छीन लेती है। मनुष्य की प्रत्युत्पन्न मति का ह्रास कर उसके स्थायित्व को स्खलित कर देती है। मनुष्य कभी कुछ कभी कुछ सोचने लगता है। यह असंतुलन उसके मानसिक तवासुन के साथ-साथ उसके शरीर पर भी प्रभाव डालता है। जीवन के हर क्षेत्र में हम चिंता की विशुद्धता को देख सकते हैं। शायद इसलिए गोस्वामी जी ने कहा है- चिंता सौपिन को नहिं खाया, पारंगत
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