समन्वय छात्र पत्रिका-2012 पृ-5:1
विद्या सबसे बड़ी शोभाअक्षय बल्लभ दाश
धर्मग्रंथों में विद्या को सर्वश्रेष्ठ मित्र और ऐसा अमूल्य धन बताया गया है, जो कभी क्षीण नहीं होता। कहा गया है कि "विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्र गृहेषुच, व्याधितंस्यौषधं मित्रं, धर्ममित्रं, मतृस्यचा", विदेशों में मित्र विद्या है। घर में पत्नी मित्र है। रोग ग्रस्त के लिए औषधी मित्र है और मृत्यु के समय धर्म मित्र की तरह साथ देता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि उच्च कुल में उत्पन्न हुआ, सुंदर व तरुणाई से युक्त व्यक्ति यदि विद्याहीन है, तो वह गंधहीन पलाश के फूल के समान महत्त्वहीन है। आद्य शंकराचार्य प्रश्नोत्तरी में कहते हैं कि माता के समान सुख देने वाली विद्या है। दूसरों को बांटने से बढ़ने वाली उत्तम विद्या ही है। पुराणों में कहा गया है कि वही उत्तम विद्या है, जो शीलवान, सदाचारी बनने तथा सत्य व धर्म पर अटल रहने की प्रेरणा देती है। "विद्या ददाति विनयम्" वही सच्ची विद्या है, जिससे मानव विनम्र बनता है। वह योग्यता व ईमानदारी से धन अर्जित करता है तथा उस धन का सदुपयोग कर धर्ममय जीवन बिताता है। ऐसा व्यक्ति सदैव सुखी और निर्भय जीवन व्यतीत करता है। एक सूक्ति में कहा गया है कि तारों की शोभा चंद्रमा से, नारी की शोभा उसके पति से और पृथ्वी की शोभा योग्य राजा से होती है, किंतु विद्या ऐसा अमूल्य गुण है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति समाज में आदर और सत्कार पाता है। काम-क्रोध रूपी विकारों से युक्त व्यक्ति के लिए विद्यारूपी दीप का प्रकाश निष्फल होता है। विद्वानों के मतानुसार- नृपत्वच विद्ववत्वंच नैव तुल्य कदाचन अर्थात राजा अपने देश में पूजा जाता है, लेकिन विद्वानों की पूजा हर जगह होती है। इसलिए विद्या को विवेक के साथ उपयोग करने में ही कल्याण बताया गया है। पारंगत
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