स.पू.अंक-13,अक्टू-दिस-2011,पृ-120
हिंदी के विकास में मानस का योगदान
सन्त कवि तुलसीदास द्वारा प्रणीत महाकाव्य ‘रामचरित मानस’ अपनी विविध विशेषताओं के कारण बहुआयामी रूप से उपादेय सिद्ध हुआ है। इसमें जन–जन के आराध्य और उपास्य राम की गाथा का वर्णन है। इसके परायण और इसमें समाविष्ट पात्रों के चरित्र–चित्रण से मन को शान्ति और मर्यादित जीवन जीने की दिशा का ज्ञान होता है। यही कारण है कि ज्यों–ज्यों समय बीतता रहा. इसके प्रति जनरूचि में वृद्धि होती रही। आज तो स्थिति यह है कि महल से लेकर झोपड़ी तक़ प्रबुद्ध जन से लेकर सामान्य जन तक ‘रामचरितमानस’ के प्रति अगाध आस्था व्याप्त है। महाकवि तुलसी ने ‘रामचरित मानस’ की रचना के पूर्व आगम और निगम साहित्य का गहन अध्ययन किया और उसका सारतत्त्व जनसामान्य की सहज–सरल भाषा में प्रस्तुत किया। इसके पूर्व ज्ञान का यह अतुल भण्डार संस्कृत भाषा में होने के कारण साधारण व्यक्ति की समझ और पहुँच के परे था। यहाँ तक कि अपेक्षाकृत अधिक मनीषी जन भी इस साहित्य से अपरिचित ही थे। ‘रामचरित मानस’ से जीवन के शाश्वत मूल्यों का ज्ञान और उनके प्रति अमिट आस्था का आविर्भाव होता है। माता–पिता, भाई–बहन, पति–पत्नी, मित्र–शत्रु, भाई–भाई आदि के बीच कैसा सम्बन्ध होना चाहिए। इसकी उपयोगी जानकारी भी इससे मिलती है। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है कि मानस की रचना के समय मुस्लिम आक्रान्ताओं, उनके शासन और उनकी सामाजिक जीवन–पद्धति से भारतीय जीवन–पद्धति प्रदूषित हो रही थी। भारतीय संस्कृति के लिए यह संकट की स्थिति थी। तुलसी का ध्यान इस ओर गया। राजसिंहासन के प्रति राम के विराग़ उनके द्वारा सहर्ष वनवास की स्वीकृति तथा भरत द्वारा सिंहासन न स्वीकार कर राम के प्रतिनिधि के रूप में राजकाज को अंगीकार करने जैसी उदात्त चारित्रिक मनस्थितियों का निरूपण तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में किया है ताकि शाहीतख्त के लिए मुस्लिम शासकों के सन्तानों के बीच होने वाली जघन्य नृशंसहत्याओं से भारतीय सामाजिक जीवन प्रभावित न हो सके। वस्तुत: रामचरित मानस’ रत्नाकर जैसा है। कोई भी उसका अवगाहन करे, उसे अपनी इच्छानुसार रत्नों की प्राप्ति होती है, जिनसे उसके इहलौकिक एवं पालौकिक जीवन की सार्थकता सुनिश्चित हो जाती है। भारतीय जनजीवन में यह ग्रन्थ एकक पवित्र धर्मग्रन्थ की मान्यता प्राप्त किये हुए है, जिसका पाठ करने से धर्म, अर्थ एवं मोक्ष की प्राप्ति सुनिश्चित होती है, ऐसा विश्वास हर आस्थावान् व्यक्ति के मन में घर किये हुए है। कोई भी ग्रन्थ हो, जिस भाषा में वह रचा जाता है, उसके प्रचार और प्रसार में वह सहायक सिद्ध तो होता ही है। ‘रामचरित मानस’ की भाषा अवधी है जो हिंदी की ही एक बोली है। परन्तु धर्म ग्रन्थ के रूप में मान्य होने के कारण उसे पढ़ने के लिए उस समय भी लोगों ने हिंदी सीखने के प्रति उत्सुकता दिखायी। जब कि मुस्लिम शासन के समय राजकाज की भाषा फारसी थी। बाद में राजकाज की भाषा उर्दू हुई। अन्त में इसका स्थान अंग्रेजी ने लिया। इस दीर्घन्तराल में यदि हिंदी के प्रति लोगों के मन में मोह बना रहा, तो इसका श्रेय ‘रामचरित मानस’ को ही है। |
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