नौ ग्रह पर्यावरण लीलते
विषम–विभेद, गरीबी, जल
खाद्य–सुरक्षा, उर्वरता, वन
जैव–विविधता, सरित–विकल
शहरी–स्थितियां, मुँहबाए
रचती बस नर्क का विधान।
ग्लोबल वार्मिग, अन्य संसाधन
औपचारिक है साफ–सफाई
‘पृथ्वी दिवस’ अन्य दिवसों सा
अनुभव होता, फटी बिवाई,
धरती मां दरियादिल फिर भी
हमें कर रही नित्य सयान।
आस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका
नित्य जलजले झेलते
अन्वेषण–परीक्षण जितप्रति
नाशक–रोटियां बेलते,
तापमान ओजोन–छिद्र, बन
देते भूकंपों का मान।
ध्वनि, जल, वायु, प्रदूषण के संग
‘जनसंख्या’, ‘विचार’ भी कारण
सब नदियां गंगा–यमुना संग
कृष्ण–वस्त्र करतीं हैं धारण,
मृत्यु के समय अब गंगाजल
स्वर्गलोक हित नहीं निदान।
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नव उदारवादी कुदृष्टियाँ
ललचायी आंखों से घूरतीं
हवन–कुण्ड में घी उड़ेल कर
स्वार्थ–अग्नि–पाती अगोरती
अंकुश इस मंशा पर जरूरी
मिटाना है इनका अभिमान।
अरबों टन कार्बन–उत्सर्जन
मौत हर समय यही चाहती
प्रकृति की उपेक्षा घातक
फलतः मानवता कराहती,
शान शौकत प्रगति, भुलावा
क्यों पालें झूठा सम्मान ?
रक्षा जिनकी है मनोवृत्ति
ये वक्ष हमारे सहचर हैं
नष्ट करें क्यों फिर भी इनको ?
ये तो हमारे अनुचर हैं,
परोपकार में अंग–अंग का
निःस्वार्थ करते हैं दान।
हमें समझना होगा यह कि
जीवन सदा प्रकृति का खेल
ऊपर गगन, धरा है नीचे
अगर स्वर्ग है, तो यही मेल,
सभी विध्वंसी–अन्वेषण
लेते महज मनुज की जान।
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