स.पू.अंक-13,अक्टू-दिस-2011,पृ-74
मेघों से टूट रहा है हमारा संवाद। बँटे हुए जन-मन पर वे अब भी बरसते हैं, लेकिन सातत्य के साथ नहीं, रूक-रूक कर। कहीं बाढ़ आकर सब बहा ले जा रही है, कहीं लोग प्यास से मर रहे हैं। अतिवृष्टि और अनावृष्टि - दोनों ओर प्रलय - मृत्य-राग, बजा रहे हैं वही मेघ। उनके जल को ग्रहण करने के लिए हमारे पास जगह ही कहाँ है ? अँजुरी भी कहाँ खाली है कि वे बरसे और सारे भेद मिटा कर सब एक कर दें। थोड़ी जगह दें बादलों को उतरने के लिए। नहीं देगें तो जल जीवन नहीं, जहर बन कर हमको मारेगा और बाढ़ बन कर हमारी बस्तियाँ बहा देगा। जगह देगें तो बौछार, झड़ी और रिमझिम बन कर आस्था के कुंभ को भरता रहेगा, संस्कृतियों की रचना करने वाली नदियों को सदानीरा बनाते हुए उनके प्रवाह को रूकने नहीं देगा। पहले नदियाँ जब अपने तटबंध तोड़ देती थीं तो हम उनकी पूजा करके उन्हें मनाते थे। गंगा, यमुना, नर्मदा, कावेरी, गोदावरी, सरयू का क्रोध उतारने के लिए क्या किसी ने तट पर खड़े होकर उनकी आरती की? नहीं की तो क्यों ? सोचिए और बादलों को उतारने का उपाय कीजिए। संपर्क सूत्र- पागल यौवन का विप्लवकारी महानर्तन
सूरज अगली सुबह तक के लिए आधी पृथ्वी से विदाई ले रहा है। दिन भर कल्पनातीन रौशनी में तपकर बेहिसाब चमकता हुआ। गँवई, देहाती और अल्हड़ पक्षियों को भी सूरज के जाने की भनक मिल गयी है, वरना वे क्यों कतार बाँधकर लयबद्ध गति के साथ पश्चिम के सुर्ख गुलाबी आकाश की गहराइयों में बहते चले जाते? उन्हें भी अपने बसेरे की चिन्ता है, शाखाओं पर लटके हुए घोंसलों में नाज़ुक, मासूम बच्चों की फिक्र है। भीतरी अकुलाहट पंखों की चाल तेज कर देती है कि भूखे-प्यासे बच्चे दिन भर कैसे घोंसले में रहे होंगे? यह सूरज सुबह-सुबह रोज आता है और प्रतिदिन शाम को विदा हो लेता है। लेकिन हर गाँव का, हर बस्ती का, हर अंचल का अपना-अपना सूरज है। प्रतिदिन भोर में सूरज का उगना शहरों के लिए एक आम प्राकृतिक घटना है, यहाँ किसे फुरसत है कि चुपके से पूर्वी क्षितिज में बित्ता भर उठे हुए कच्चे सूरज के गोले को देखकर मारे खुशी के निहाल हो जाए। मगर गाँवों के लिए? रात भर के भूखे बैलों को नाद में खाने की आशा लेकर आता है, किसान के भक्त-कंठ में राम-राम का निर्मल राग जगाता है। नई-नवेली बहुओं में सजने-संवरने की ललक, किशोरियों में किसी सलोने का सपना, गृहस्थों में गंभीरता, नौजवानों में बीते हुए कल का पश्चात्ताप लेकर आता है - प्रत्येक सुबह का सूरज। खेतों की फसलें अपने अस्तित्व का उत्सव मनाती हैं, उनके लिए तो सूरज रोशनी नहीं, अमृत रस भेजता है। रात भर आलस्य में सोयी रहने वाली कच्ची फसलों में परिपक्व होने की आकांक्षा मचलने लगती है। |
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