हिंदी की ज्योति
संस्थान गीत की एक पंक्ति है- 'जन-जन का पथ ज्योतिर्मय हो'। भारत जननी एक हृदय हो।' यह बड़ी सारगर्भित उक्ति है, जो भाषा के माध्यम से लोगों के जीवन में ज्योति जलाने की बात कहती है। इसी आशय की दूसरी उक्ति है भारतेंदु की, जब वे कहते हैं 'निज भाषा उन्नति अहै'। हम भाषा के शक्तिमान स्वरूप को आधुनिक युग में ही अधिक स्पष्ट रूप से समझने लगे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी चिंतन के महत्व को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाने लगा है। वही समाज उन्नति कर सकता है, जो मौलिक चिंतन में प्रवृत्त हो। जिस व्यक्ति में चिंतन करने की शक्ति न हो, वह सृजनशील नहीं बन सकता। यह भी निर्विवाद सत्य है कि व्यक्ति अपनी भाषा में ही चिंतन कर सकता है, परायी भाषा का काम चलाऊ ज्ञान उसे कार्य निपटाने का कौशल तो प्रदान कर सकता है, मौलिक चिंतन और सृजनात्मक शक्ति प्रदान नहीं कर सकता। भारत में 1975 के आस-पास भाषा के नाम पर पहला विश्वविद्यालय बना। यहाँ तंजाऊर नगर में स्थापित तमिल विश्वविद्यालय था। उस समय इस संदर्भ में कुछ विवादी स्वर उठे थे। कुछ लोगों का कहना यह था कि केवल एक भाषा के नाम पर एक विश्वविद्यालय कैसे बन सकता है। सवाल उठाने वालों के मन में शायद यही भावना थी कि तमिल की भूमिका इतनी ही तो है कि वह बी. ए. में अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जाती है और कुछ लोग विशेष अध्ययन कर बी. ए. या एम. ए. की उपाधि प्राप्त कर लेते हैं। फिर विश्वविद्यालय की आवश्यकता क्या है? उनकी दृष्टि पाठ्यचर्चा विकास तक ही सीमित रही। आधुनिक युग में भाषाविज्ञान के बढ़ते प्रभाव के कारण हम भाषाओं के महत्व को समझने लगे हैं। गणित का विषय क्षेत्र संख्याओं का गुणा-भाग करना है, भौतिक विज्ञान का विषय क्षेत्र विद्युत शक्ति, ऊर्जा, बल, चुंबकत्व आदि वस्तुओं के गुणों का अध्ययन करना है। इस तरह भाषा के अध्ययन की वस्तु क्या है? वास्तव में भाषा पाठ्यक्रमों की अपनी कोई विषय वस्तु नहीं है, दूसरी तरफ यह भी कह सकते हैं कि ब्रह्मांड की सभी चीजें भाषा के अध्ययन की वस्तु हो सकती हैं। हम भौतिक जगत का विश्लेषण और व्याख्या करते हैं, अपने इतिहास और अपनी संस्कृति का वर्णन करते हैं, एक दूसरे से अपनी आवश्यकताओं और मनोभावों का आदान-प्रदान करते हैं। वास्तव में भाषा ही वह साधन है, जिससे हम समस्त विषयों के बारे में ज्ञानार्जन करते हैं और जीवन के समस्त कार्यकलाप भाषा के माध्यम से ही संपन्न होते हैं। इस प्रकार यह नयी सोच है कि सुसंस्कृत मानव जीवन के केंद्र में भाषा का स्थान है। | ||||||||||||
|