गवेषणा 2011 पृ-88
विज्ञापन, जनमत और विश्वास, ये तीनों तत्व एक दूसरे के पूरक हैं। भाषा एक माध्यम है –अभिव्यक्ति का। हिंन्दी भाषी साक्षर-समाज की संख्या की तुलना में अनेक पत्र-पत्रिकाओं की खपत बहुत नगण्य है। यह विचारणीय प्रश्न है। एक बात यह भी है कि रेडियो और दूरदर्शन ने समाचार प्रसारण की गति तीव्रतम कर दी है। अत: दैनिक मासिक, सामूहिक पत्र-पत्रिकाओं के पाठक कम होते जा रहे हैं। अब आंचलिक और सस्ते अखबार अधिक चल रहे हैं। हिन्दी के पाठक अब ग्रामाचंल में बढ़ रहे हैं। वे केवल सनसनीखेज खबरें नहीं चाहते बल्कि अपने ज्ञान-विज्ञान, जिज्ञासा तथा आवश्यकता की ओर से अधिक उन्मुख होते हैं। नए-नए विषयों और विज्ञापनों देने वाले पत्र लोगों को अधिक आकर्षित करते हैं। विज्ञापनों में विवाह-विज्ञापन बड़े पैमाने पर पढ़े जाते हैं या फिर रोजगार विज्ञापन। देखा यह गया है कि सरकारी-प्रचार के विज्ञापनों पर से साधारण पाठकों की भी आस्था और विश्वास कम होता जा रहा है। सत्तारूढ़ एक पार्टी विज्ञापन और आत्म समर्थनार्थ समाचारों में पाठक की आस्था कम होती जाती है। भाषा के स्तर पर अधिकांश विज्ञापनों की भाषा अंग्रेजी से अनुवाद मात्र की यांत्रिक और प्राणहीन भाषा है। उसमें पिष्टपेषण और चर्चित-चर्वण अधिक है।
रंग-मंच के माध्यम से हम प्रचार-प्रसार और विज्ञापन की बात करते हैं, किंतु रंगमंच के लिए सर्वमान्य भाषा की तलाश में अच्छे नाट्य-निर्देशक अलग-अलग बातें करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भाषा अभी बनी नहीं है और कुछ लोग भाषा को गौण मानते हैं। विज्ञापन की दृष्टि से फिल्म एक अच्छी भूमिका निभा सकती है। किंतु हिन्दी साहित्यकार फिल्म जगत द्वारा उपेक्षित है। हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में कहीं फिल्म निर्माण स्टूडियो नहीं है। फिल्मी विज्ञापन में, बाजार में चलते सिक्के की तरह भाषा का व्यवसायीकरण ही होता है और कुछ नहीं। वास्तव में संचार माध्यमों में विज्ञापन और उसकी भाषा का सर्वसाधारण तक पहुँचाने के लिए उसके सरलीकरण एवं लोक भाषा-शैली को अपनाने की आवश्यकता है। साथ ही सरकारी और गैर सरकारी संचार माध्यमों का संचालन, संपादन, संप्रसारण और संप्रेषण में भाषावैज्ञानिकों का अधिकाधिक सहयोग लेना उपेक्षित है। तभी संचार-माध्यमों के द्वारा प्रचार-प्रसार और विज्ञापन आदि में हिन्दी की स्थिति सृदढ़ होगी।
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