नाश्ता मुझे आज भी याद है 2
डॉ. जगन्नाथन ने जाते ही एक बड़ी चुनौती मेरे सामने रख दी कि बहुत समय से लम्बित व्याकरण की सिद्धान्त-व्यावहारिक पुस्तक की योजना को पूरा करूँ और मुझे आज भी खुशी है कि डॉ. चौहान, डॉ. बासुतकर और डॉ. सहाय के आत्मीय और विद्रवत्तापूर्ण सहयोग से मेरा यह कार्य पूरा हुआ।
श्री तिरूपति बालाजी की कृपा से मैं रीडर के पद पर उदयपुर विश्वविद्यालय लौट आया। डॉ. जगन्नाथ जी की उदार सहृदयता को मैं भूल नहीं पाता। आते समय उन्होंने कहा- 'रीडर पद-भार ग्रहण करने के बाद मुझे सूचना देना, तब आपका त्यागपत्र आगरा भेजूँगा, लेक्चरर के पद पर मत जाना। डॉ. जगन्नाथन के साथ मेरे और भी आत्मीय संस्मरण हैं, जो अक्सर मेरे मानस पटल पर दस्तक देते रहते हैं। पाँच वर्ष उदयपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रीडर एवं अध्यक्ष पद पर रहने के बाद 1984 में फिर संस्थान के आगरा केंद्र में मेरी नियुक्ति हिंदी भाषा और साहित्य के प्रोफेसर पद पर हो हुई। तब संस्थान शैक्षिक दृष्टि से अपने शिखर पर था। हालांकि संस्थान पहुँचने के साथ ही वहाँ के कर्मचारियों की गुटबाजी, संस्थान के शैक्षिक कार्यों को बाधित करने की प्रवृत्ति से मैं परिचित होने लगा था। पर डॉ. न. वी. राजगोपालन, डॉ. सुरेश कुमार, डॉ. मनोरमा गुप्ता और मैं स्वयं कर्मचारियों की गुटबंदी से अलग अपने कार्यों में लगे रहे। कैसा समय था, भारत के सभी अंचलों से छात्र सात दिवसीय शिविर में सम्मिलित होने आते थे। एक साथ भारत का एक लघु प्रतिरूप-सा हमारे सामने उपस्थित हो जाता था। डॉ. चौहान की प्रबंध कुशलता, डॉ. अश्वनी कुमार का व्यवस्था चातुर्य और समर्पण, डॉ. रामकृपाल कुमार व डॉ. रामकमल पांडे की अथक श्रमशीलता उस शिविर को मूर्त करती थी। इनमें से रामकमल पांडे तो आज भी संस्थान में हैं। दूसरी बार संस्थान में जाना मिश्रित अनुभवों को लेकर सामने आया। कुछ लोग थे, जो पहले से जानते थे, उनकी आँखों में आनंद का भाव था, कुछ ऐसे थे-शायद अधिक-जिनकी आँखों में काँटे उग आए थे। | ||||||||||||
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